ट्रस्ट का वारा-न्यारा प्रसिद्ध मंदिरों का राजनीतिक बंटवारा

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    पड़ोसी ने हमसे कहा, ‘‘निशानेबाज, भक्तों को भगवान का सहारा होता है. अपना हर बंदा भगवान को प्यारा होता है लेकिन अब तो मंदिरों का भी बंटवारा होने लगा. महाराष्ट्र की महाविकास आघाड़ी की समन्वय समिति की बैठक में तीनों पार्टियों को मंदिरों का विकास किया गया. शिर्डी साईंबाबा संस्थान का अध्यक्ष पद राष्ट्रवादी को, विट्ठल-रुक्मिणी देवस्थान पंढरपुर का अध्यक्ष पद कांग्रेस को दिया गया है. मुंबई के सिद्धिविनायक मंदिर का प्रबंधन पहले से ही शिवसेना के पास है.’’ हमने कहा, ‘‘ऐसा कहिए न कि भरपूर चढ़ावा आनेवाले मंदिरों पर अपनी-अपनी ठेकेदारी तय हो गई है.

    कहीं धूप, कहीं छाया है, सब प्रभु की माया है. ईश्वर की मर्जी के बगैर पत्ता भी नहीं हिलता. उन्हीं के संकेतों पर पार्टियों ने अपने-अपने मंदिर बांट लिए’’ पड़ोसी ने कहा, ‘‘निशानेबाज, क्या आस्था का भी बंटवारा होता है? पार्टियों का महामंडल बांट लेना समझ में आता है परंतु मंदिरों का बंटवारा क्यों?’’ हमने कहा, ‘‘लोकतंत्र के मंदिर संसद में भी तो पार्टियां अपनी नीतियों और सिद्धांतों की वजह से बंटी हुई हैं. जैसे देवता वैसी पूजा का विधान है. जब तक स्वरूप के प्रति आस्था धनीभूत हो जाती है तो मीराबाई का भक्त हृदय गा उठता है- मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो ना कोई.’’ पड़ोसी ने कहा, ‘‘निशानेबाज, यह मंदिरों का राजनीतिक बंटवारा है. इसमें भक्ति को मत खोजिए.

    किसी प्रसिद्ध मंदिर के ट्रस्ट पर कब्जा हो जाए तो वारे-न्यारे हो जाते हैं. मंदिर का मैनेजमेंट सीखने के लिए एमबीए नहीं करना पड़ता. जिन मंदिरों की विशेष ख्याति है, वहां चढ़ावा भी भरपूर आता है. जिससे तिजोरियां भर जाती हैं. भगवान भी कहते हैं कि मेरा भक्त जिस हालत में मुझे रखेगा, मैं वैसा ही रहूंगा. कोई मंदिर टूटकर खंडहर हो जाता है, उसका जीर्णोद्धार नहीं हो पाता तो किसी मंदिर में पंच पकवानों का भोग लगता है और घंटे-घडियाल के साथ आरती होती है. अपना देश ऐसा है जहां मंदिर को लेकर राजनीति होती रही है.’’