पड़ोसी ने हमसे कहा, ‘‘निशानेबाज, आजादी के 75 वर्षों के बावजूद मध्यप्रदेश में इतना पिछड़ापन है कि वहां पंचायत चुनाव में पत्नी जीती लेकिन शपथ उसके पति या अन्य पुरुष रिश्तेदारों ने ली. मतलब पंच चुने जाने पर भी पत्नी की हैसियत जीरो और पति ही रहेगा हीरो! पंचायत समिति या अन्य बैठकों में पत्नी की बजाय पति जाएगा और वही कागजों पर दस्ताखत करेगा या ठप्पा लगाएगा. यदि ऐसी बात है तो पंचायत में महिला आरक्षण किस काम का? ऐसी बेवकूफी महाराष्ट्र में नहीं होती.’’
हमने कहा, ‘‘बेशक ऐसी घटना मध्यप्रदेश के सागर और दमोह जिले के पंचायत चुनाव में हुई है तथा अन्य जिलों में भी होती होगी. यह वहां की संस्कृति है कि घर हो या समाज, बैठक हो या पंचायत, वहां का काम मर्द ही संभालते हैं. इन पिछड़े इलाकों की महिलाओं को चूल्हा, चक्की और बच्चों की देखभाल तक ही सीमित रखा जाता हैं. मध्यप्रदेश में पत्नी भले ही चुनाव जीते, उसका कामकाज पंचायत पति ही संभालता है. महाराष्ट्र में सावित्रीबाई फुले, इरावती कर्वे जैसी समाजसुधारक महिलाएं हुई. देश की पहली महिला डाक्टर आनंदीबाई जोशी भी महाराष्ट्र से ही हुई. महाराष्ट्र में घूंघट या पर्दा प्रथा नहीं है. यह खेद की बात है कि मध्यप्रदेश व कुछ अन्य राज्यों में पढ़ी-लिखी और योग्य होने के बावजूद महिलाओं को मौका नहीं दिया जाता या उनका हक छीन लिया जाता है. संकीर्ण सोच या तंग नजरिए की वजह से उन्हें जिम्मेदारी नहीं सौंपी जाती.’’
पड़ोसी ने कहा, ‘‘निशानेबाज, यदि किसी महिला के पंच चुने जाने के बाद उसका पति, पिता या बहनोई उसकी जगह शपथ लेता है तो महिला सशक्तिकरण कैसे होगा?’’
हमने कहा, ‘‘आप को जानकर आश्चर्य होगा कि देश की राष्ट्रपति महिला होने के बावजूद यूपी- बिहार के देहातों में अधिकांश महिलाएं वोट देने पोलिंग बूथ नहीं जातीं. महिलाओं को प्रत्यक्ष रूप से उनका अधिकार दिलाए बगैर आजादी अधूरी है. पंचपति यदि खुद को पतिपरमेश्वर मान कर शपथ लेता है तो पत्नी का अधिकार छीनने वाले ऐसे व्यक्ति पर तत्काल कड़ी कार्रवाई करनी चाहिए.’’