बेहद खौफनाक और हृदयविदारक कोरोना के कर्ज और दर्द की तस्वीर

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    कोरोना महामारी ने इस वर्ष देश के लोगों को जो दर्द दिया है, उसे भुला पाना किसी के लिए भी मुश्किल है. शायद ही ऐसा कोई परिवार हो, जिसने अपने किसी रिश्तेदार, मित्र या परिचित को नहीं खोया हो या उसकी बीमारी की दिक्कतों को न देखा हो. कई निजी अस्पतालों ने आपदा को अवसर माना और ऐसी लूट मचाई, जिसकी कल्पना असंभव थी. डॉक्टरों के समर्पण, सदाशयता की जो प्रतिमा पिछले कई दशकों की मेहनत से गढ़ी गई थी, कुछ डॉक्टरों की वजह से वह चूर-चूर हो गई.

    आम मरीजों के बीच इस भरोसे को वापस पाना इस पेशे के लोगों के लिए भी आसान नहीं होने वाला. कोरोना से हमारे देश में लाखों जानें गईं. उससे कई गुना ज्यादा गंभीर रूप से बीमार पड़े. जिंदगी वापस मिली, पर लाखों रुपए के कर्ज के साथ कोरोना बीमारी ने आर्थिक मोर्चे पर भी लोगों को तोड़ दिया. नौकरियां गईं, वेतन कटे. कारोबार का ऐसा कबाड़ा हुआ कि अभी तक स्थिति संभाले नहीं संभल रही. लोगों ने अपने जेवर गिरवी रखे, जमीन-जायदाद बेची, ताकि अपने करीबी का इलाज करवा पाएं. आजीविका को बचा सकें, रोजमर्रा के खर्च का जुगाड़ हो पाए. इस दौरान सराफा बाजार के अलावा गोल्ड लोन देने वाले बैंकों की खबरें लगातार आ रही थीं. नाम अलग थे, कहानी एक. बैंकों, सराफा कारोबारियों और साहूकारों के पास इस दौरान कर्ज के लिए रिकार्ड सोना पहुंचा. बहुत सारा सोना डूब गया, क्योंकि एक-तिहाई से ज्यादा लोग कर्ज के मूल और सूद की रकम चुका ही नहीं पाए.

    42 अरब रुपए का लोन

    अब ताजा आंकड़ा गुजरात के राष्ट्रीयकृत बैंकों द्वारा इलाज के लिए दिए गए कर्ज से जुड़ा है. आरटीआई में करीब एक दर्जन बैंकों ने बताया कि कोरोना संक्रमण के चरम वाले 3 महीनों में उन्होंने 42 अरब रुपए कर्ज के रूप में दिए, यानी गुजरात के पूरे साल के स्वास्थ्य बजट का एक-तिहाई! ये आंकड़ा केवल बैंकों से लिए गए कर्ज का है. रिश्तेदारों, साहूकारों और दूसरे स्रोतों से लिए गए कर्ज को जोड़ें तो ये रकम कम से कम 5 गुना हो जाएगी. बाकी राज्यों में भी कर्ज लिए गए, उनका हिसाब-किताब तो सिर चकरा देगा. ये स्थिति तब है जब राज्यों और केंद्र की स्वास्थ्य बीमा योजनाओं की कुछ हद तक मदद हासिल थी. इन आंकड़ों को जनगणना की तरह जुटाकर उनकी बारीकी से पड़ताल करना जरूरी है. आलोचना के लिए नहीं, बल्कि किसी महामारी के असर को देखने के लिए, एक सही स्वास्थ्य और राहत नीति तैयार करने के लिए.

    निजी अस्पतालों ने जमकर की लूटखसोट

    खर्च से जुड़े सारे डेटा के विश्लेषण से बहुत सारे अहम तथ्य मिलेंगे. एक बड़ी तस्वीर सामने आएगी, जिसमें ये भी पता चलेगा कि किस आयु और आय वर्ग के लोगों ने कर्ज लिए. कर्ज में ली इतनी भारी-भरकम रकम गई कहां? अगर इलाज में इसे खर्च किया गया, तो निजी अस्पतालों ने उसे अपनी कमाई में दिखाया या नहीं? इस दौरान लोगों ने किस तरह की चीजों पर ज्यादा खर्च किया? इससे किसी महामारी के आर्थिक असर को समझना आसान होगा. इन हालात में आम लोगों को किस तरह से राहत दी जा सकती है, उसकी योजना बनाने में भी सरकारों को मदद मिलेगी.

    स्वास्थ्य बीमा योजनाओं के ढांचे में भी बड़े सुधार की जरूरत है. इनका भारी-भरकम प्रीमियम देश की बड़ी आबादी को निजी स्वास्थ्य बीमा योजनाओं से दूर रखता है. इसे किस तरह से संतुलित किया जा सकता है, सुधारा जा सकता है, उस पर गंभीर मंथन की जरूरत है. इनसे ज्यादा जरूरी चीज सरकारी अस्पतालों को मजबूती देना है, जो राज्य और केंद्र की बुनियादी जिम्मेदारी है. कोरोना काल के दौरान बनी परिस्थिति ने सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं की बदहाली और उसकी उपयोगिता दोनों तस्वीर सामने धर दीं. अब पिछले 18-19 महीनों के अनुभवों से सीखकर आगे बढ़ने का वक्त है. कोविड ने हमें दिखाया है कि कोई वायरस कितनी तेजी से और कितनी बड़ी तबाही ला सकता है! इसके लिए हर वक्त तैयार रहने के अलावा दूसरा विकल्प हमारे पास नहीं है.