प्रधानमंत्री मोदी सचमुच जननेता या स्टेटसमैन हैं. उनकी ‘जनता कर्फ्यू’ की अपील पर देश भर में करोड़ों लोगों ने अभूतपूर्व प्रतिसाद दिया. कोरोना की चुनौती से निपटने के प्रधानमंत्री के आह्वान को देशवासियों ने पूरी गंभीरता से लिया. सभी लोग स्वच्छा से अपने घरों के भीतर रहे. गलियां, सड़कें, पार्क सभी सुनसान रहे. ऐसा सन्नाटा इसके पहले शायद ही कभी देखा गया. इक्की दुक्की कारें दिखाई दीं. केवल पुलिस की गाड़ियां नजर आईं. अत्यावश्यक सेवा वाले लोग मीडिया, एम्बुलेंस, शव वाहिका, अस्पताल कर्मी ही घरों से बाहर निकले. समूचे देश की रफ्तार थम गई, जिंदगी जैसे ठिठककर रह गई. पीएम के आह्वान पर देशवासियों ने संकल्प ले लिया कि हर हालत में कोरोना को भगाना है. लोग अपनी मर्जी से घरों के भीतर रहे. बच्चों ने भी लूडो, कैरम या चेस जैसे इनडोर गेम खेलकर समय बिताया, टीवी देखा या किताबें पढ़ी. रविवार को छुट्टी में तफरीह या घूमने फिरने का प्रोग्राम हर किसी ने कैंसिल कर दिया. शाम को लोगों ने घर की छत या बालकनी पर खड़े होकर ताली, थाली या शंख बजाकर एकजुटता दर्शाई. इस जनता कर्फ्यू से भारतवासियों का धैर्य व राष्ट्रीय अनुशासन की बानगी सामने आई. प्रधानमंत्री मोदी का समर्थ नेतृत्व भी इससे सिद्ध हुआ कि उनकी अपील को देशवासी कितनी गंभीरता से लेते हैं. इससे देशवासियों को जय जवान जय किसान का नारा देनेवाले पूर्व प्रधानमंत्री स्व. लालबहादुर शास्त्री का स्मरण हो आया. शास्त्री ने 1965 में खाद्यान्न संकट की अभूतपूर्व घड़ी में देशवासियों से सोमवार को एक समय उपवास करते हुए शाम को भोजन नहीं करने आह्वान किया था. तब आकाशवाणी से किए गए इस आह्वान व अखबारों में छपी उनकी अपील का देशवासियों ने पालन किया था. जो जननेता होता है उसे कोई जोर जबरदस्ती नहीं करनी पड़ती. उसकी अपील सीधे जनता के दिलों में उतर जाती है और लोग स्वेच्छा से उसका पूरी तरह पालन करते हैं. 130 करोड़ आबादी के भारत में प्रधानमंत्री मोदी के ‘जनता कर्फ्यू’ आह्वान को स्वयंस्फूर्ति जैसा प्रतिसाद मिला, वह सचमुच अभूतपूर्व है. वैसे एक दिन का कर्फ्यू काफी नहीं है. यह तो एक ड्रिल या अभ्यास है. सारी हलचलें या गतिविधियां कुछ सप्ताह के लिए रोक दी जानी चाहिए. राज्य के 4 शहरों में 31 मार्च तक लॉक डाउन किया गया है.