श्रद्धेय जननेता…

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शरद पवार दिल्ली पहुंचे थे और जल्द ही उन्होंने राष्ट्रीय राजनीति में अपना केंद्रीय स्थान सुनिश्चित कर लिया था. उन्होंने बेहद कम समय में कांग्रेस पार्टी में अग्रणी और वरिष्ठ नेता के तौर पर अपनी स्थिति मजबूत कर ली थी. इसमें कोई शक नहीं कि वे प्रधानमंत्री पद के लिये एक बेहतर और स्वाभाविक उम्मीदवार थे लेकिन दिल्ली की दरबारी राजनीति ने इसमें अवरोध उत्पन्न करने की कोशिश की. यह ना केवल उनके लिये एक व्यक्तिगत क्षति थी बल्कि उससे भी कहीं ज्यादा पार्टी के लिये और देश के लिये एक बेहद बड़ी और दुर्भाग्यपूर्णश क्षति थी.

मैं मुंबई में हमारे आवास पर पहली बार शरद पवारजी से मिला था. उस समय मैं केवल बारह वर्ष का था. मेरे पिता संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन से पूर्व मध्य भारत क्षेत्र के एक हिस्से के तौर पर निर्मित बेरार तथा मध्य प्रांत में विधायक थे. विदर्भ को जब महाराष्ट्र राज्य का एक हिस्सा घोषित किया गया, उस समय जनता ने उन्हें निर्वाचित किया था. उनके आधुनिक महाराष्ट्र के निर्माता और राज्य के प्रथम मुख्यमंत्री यशवंतराव चव्हाण से अत्यंत घनिष्ठ संबंध थे. यशवंतराव के पश्चात वसंतराव नाईक राज्य के मुख्यमंत्री बने और वे भी पिता के बेहद करीबी मित्र और राजनीतिक साथी थे. वे कांग्रेस पार्टी के राज्य मंडल के खजांची भी थे. सन 1967-68 में पवारसाहेब एक बार यशवंतराव चव्हाण के साथ हमारे घर आये थे. यह पहली बार था जब मैंने पवारसाहेब को इतने करीब से देखा.

इसके कुछ सालों बाद मेरे पिता का देहांत हो गया और राज्य की राजनीति में हमारे परिवार की सक्रियता और प्रभाव क्रमशः घटता चला गया और काफी हद तक घट गया था. हालांकि जब पवारसाहेब पहली बार सन 1978 में राज्य के मुख्यमंत्री पद पर आसीन हुये, उस वक्त उनके और हमारे बीच करीबी रिश्ते एक बार फिर स्थापित हो गये. हमारे गृहक्षेत्र गोंदिया से नेता छेदीलाल गुप्ता मेरे पिता के करीबी दोस्त थे और पवारसाहेब के पुलोद मंत्रालय में मंत्री थे. मेरे पिता के मंत्री गुप्ता के साथ बेहद घनिष्ठ संबंध थे. एक बार मैं गुप्ताजी के साथ मुख्यमंत्री पवार साहेब को मिलने गया था. जब मैंने उन्हें गुप्ताजी के साथ अपने पारिवारिक रिश्तों के बारे में बताया तो उन्होंने भी मेरे पिता से जुड़े अपने कई संस्मरण मेरे साथ साझा किये. उन्होंने गोंदिया के बारे में भी मुझसे विस्तार से चर्चा की. केवल एक ही बैठक में मेरे मन में उनके प्रति अपनापन और सम्मान पैदा हो गया था. इस मुलाकात ने उनके प्रति मेरा सारा दृष्टिकोण ही बदलकर रख दिया था. मैं उस वक्त सक्रिय राजनीति में नहीं था. हालांकि मेरा उनके साथ निरंतर संपर्क बना रहा.

पुलोद सरकार वर्ष 1980 में भंग कर दी गई. इसके बाद हुये चुनाव में श्री अंतुले मुख्यमंत्री बने और पवारसाहेब ने राज्य में नेता प्रतिपक्ष की जिम्मेदारी संभाली. चूंकि अब वे मुख्यमंत्री नहीं थे, लिहाजा उनकी व्यस्तता भी अब अपेक्षाकृत कम हो गई थी. इस कारण उनसे अब मुलाकात करना पहले की अपेक्षा कहीं ज्यादा आसान था. हमारे बीच अक्सर मुलाकातें होती रहीं और हम दोनों के बीच संबंध प्रगाढ़ होते चले गये. मैं राजनीति में नहीं था लेकिन भंडारा-गोंदिया इलाके में राजनीतिक रूप से थोड़ा-बहुत सक्रिय था और सभी से संपर्क में रहता था. पवारसाहेब ने मेरी इस स्थिति को ध्यान से देखा और मुझे उन्होंने राजनीति से सक्रिय रूप से जुड़ने के लिये राजी कर लिया. कुल मिलाकर मेरे राजनीतिक जीवन की शुरुआत का श्रेय उन्हें ही जाता है और उन्होंने कई मौकों पर मेरा उत्साहवर्धन किया. उन दिनों पवारसाहेब कांग्रेस (एस) में थे और स्वर्गीय राजीव गांधी के कारण ही वर्ष 1987 में वे कांग्रेस पार्टी में शामिल हुये थे. यही वह समय था जब हम ज्यादा करीबी स्तर पर और व्यापक रूप साथ काम करने लगे. मैं उस समय गोंदिया शहर परिषद का अध्यक्ष था. साल 1991 में मैं लोकसभा में निर्वाचित हुआ. इसी दौरान पवारसाहेब भी लोकसभा के लिये चुने गये और बाद में जाकर देश के रक्षा मंत्री भी बने.

प्रधानमंत्री के तौर पर अपने कार्यकाल के दौरान डॉ. मनमोहन सिंह किसी भी महत्वपूर्ण मसले अथवा विषय पर हमेशा पवारसाहेब से सलाह - मशविरा जरूर किया करते थे. उस दौरान दिल्ली में सक्रिय सभी अग्रणी और वरिष्ठ नेतागण इस सच्चाई को भली-भांति जानते थे कि अगर प्रधानमंत्री, सांसदों को कोई भी महत्वपूर्ण संदेश देना चाहते हैं या फिर किसी विषय पर अन्य वरिष्ठ नेताओं से बातचीत करना चाहते हैं, तो इस बारे में पहलकदमी के लिये अगर प्रधानमंत्री की कोई पसंद थी और अपनी ओर से वे किसी को भेजते थे, तो वे शरदपवार साहेब ही थे.

प्रफुल पटेल, एमपी

इसके पीछे केबिनेट में और कांग्रेस पार्टी की महाराष्ट्र यूनिट में वर्ष 1989 में हुई कृत्रिम क्रांति को मैं इसके लिये विशेष रूप से जिम्मेदार मानता हूं. मैं इसे कृत्रिम क्रांति इसलिये कह रहा हूं क्योंकि यह बिलकुल साफ था कि आर. के. धवन, माखनलाल फोतेदार जैसे दिल्ली में बैठे कांग्रेस नेताओं की इसमें बड़ी और विशेष भूमिका थी. यह पार्टी के भीतर ही विरोधियों को हवा देते हुये पार्टी में जनाधार वाले जननेताओं को कमजोर करने, उनके लिये दिक्कतें पैदा करने और उसे सामान्य तरीके से नेता के तौर पर प्रभावी कामकाज ना करने देने के प्रचलित षडयंत्रों काही एक हिस्सा था. हालांकि पार्टी के भीतर विधायकों और अपने साथियों पर पवार साहेब की पूरी मजबूती से पकड़ थी और उनपर सभी को भरोसा था. लिहाजा यह कृत्रिम क्रांति असफल रही और पवार साहेब मुख्यमंत्री पद पर बने रहने में कामयाब रहे.

वर्ष 1991 में लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान राजीव गांधी की अत्यंत घृणित और निंदनीय तरीके से आतंकी हमले में हत्या कर दी गई थी. सारा देश इस घटनाक्रम से सदमे में था. कांग्रेस पार्टी के लिये भी यह एक घनघोर संकट का दौर था और पार्टी घने अंधेरे के बीच अपना आगे का रास्ता तलाशने-टटोलने को मजबूर थी. उस वक्त आम कार्यकर्ताओं के साथ ही कांग्रेस पार्टी के नेताओं के बीच इस बात को लेकर लगभग आम राय थी कि शरद पवार को कांग्रेस पार्टी का अध्यक्ष बनाया जाना चाहिये. लेकिन दिल्ली की दरबारी कोटरी ने एक बार फिर मजबूत जननेता के विरोध का रास्ता चुना और इसके लिये साजिशों और योजनायें बनीं. नतीजा यह रहा कि पी.वी. नरसिंहा राव को अखिल भारतीय कांग्रेस कमिटी (एआईसीसी) का अध्यक्ष बनाया गया. जबकि सच्चाई यह थी कि नरसिंहा राव बीमार थे और उनकी उम्र भी काफी ज्यादा हो चुकी थी. उन्होंने लोकसभा का चुनाव तक नहीं लड़ा था. वे राजनीति से संन्यास लेने का मन बना चुके थे और उन्होंने दिल्ली छोड़कर हैदराबाद को अपना ठिकाना बना लिया था. लेकिन बावजूद इसके केवल शरद पवार की उम्मीदवारी और दावेदारी का विरोध करने के लिये किसी तरह नरसिंह राव को मनाया गया और उन्हें अध्यक्ष बनाया गया.

चुनाव नतीजे आ चुके थे और कांग्रेस पार्टी बहुमत के काफी करीब थी. पार्टी का एक बड़ा तबका मान रहा था कि शरद पवार जैसे किसी युवा, गतिशील और ऊर्जावान सक्षम नेता को ही प्रधानमंत्री बनाया जाना चाहिये जो कि प्रशासन पर भी अच्छी पकड़ रखता हो. विभिन्न राज्यों के कांग्रेस नेताओं की भी यही राय थी. लेकिन दिल्ली की कोटरी राजनीति के नेता एक बार फिर एकजुट हुये और साजिशों का दौर फिर से शुरू हो गया. इन्होंने प्रधानमंत्री के तौर पर नरसिंहा राव के नाम पर मोहर लगाने के लिये सोनिया गांधी को सुझाव देकर मना लिया या कहें कि उन्हें गुमराह कर दिया. पवारसाहेव को रक्षा मंत्रालय की अहम जिम्मेदारी सौंपी गई. 1989 की कृत्रिम क्रांति से लेकर आज तक दिल्ली द्वारा पवारसाहेब के खिलाफ रची गई ऐसी कितनी ही साजिशों का मैं चश्मदीद गवाह हूं. 

वर्ष 1991 से मैं उनके समर्थक के तौर पर उनसे काफी सक्रिय रूप से जुड़ा हुआ था और इस दौरान मैंने उन तमाम नेताओं को नजदीक से देखा जिन्होंने पवार साहेब को प्रधानमंत्री पद से दूर रखने के लिये कैसी और कितनी साजिशें रची, चूंकि शरद पवार का नाम एआईसीसी अध्यक्ष के साथ ही साथ प्रधानमंत्री पद के दावेदार के तौर पर काफी मजबूती से उभरा था लिहाजा नरसिंहा राव ने हमेशा से पवारसाहेब के प्रति एक कटुता का भाव बनाये रखा. वे हमेशा इसी कोशिश में लगे रहे कि किस तरह मंत्रिमंडल में पवार साहेब के प्रभाव को कम किया जाये और कैसे उन्हें तत्कालीनराजनीति में ज्यादा से ज्यादा कमजोर किया जा सके. मुंबई में 1992 के बम धमाके और दंगों से उन्हें अपने मंसूबों को कामयाब करने के लिये एक बड़ी वजह मिल गई थी. वे असल में महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री सुधाकरराव नाईक को कुर्सी से हटाना चाहते थे. लेकिन उन्होंने पवार साहेब को मुंबई भेजकर और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पद पर बिठाकर बड़ी चतुराई से सार्वजनिक रूप से यह दर्शाया कि वे संकटपूर्ण हालात में पवार पर कितना भरोसा करते हैं और मुंबई – महाराष्ट्र में बिगड़े हालात को संभालने के लिये उन्हें पवार साहेब की क्षमताओं पर कितना विश्वास है. हालात ऐसे थे कि मुंबई और महाराष्ट्र की जिम्मेदारी किसी ना किसी को लेनी थी. लिहाजा पवार साहेब ने तत्काल दिल्ली छोड़ दी और मुंबई आकर महाराष्ट्र का जिम्मा संभाल लिया.

साल 1996 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी के 145 सांसद निर्वाचित हुये थे. एच.डी. देवेगौड़ा, लालू प्रसाद यादव, मुलायमसिंह यादव और वामपंथी नेताओं ने तय कर लिया था कि शरद पवार को नेतृत्व सौंपा जाये और राव से कुर्सी छोड़ने को कहा जाये. साफ था कि अगर ऐसा हुआ तो कांग्रेस की अगुवाई में सरकार बनेगी और ये तमाम नेता और दल कांग्रेस का समर्थन करेंगे. लेकिन नरसिंहा राव अपनी जगह से टस से मस नहीं हुये और कांग्रेस को देवेगौड़ा सरकार को बाहर से समर्थन देने के लिये मजबूर होना पड़ा. मैं इन सारे घटनाक्रमों पर इतने विश्वास और मजबूती के साथ इसलिये कह सकता हूं क्योंकि इस दौरान कई संबंधित घटनाक्रमों की रूपरेखा मेरे घर में ही तय की जा रही थी.

कांग्रेस पार्टी ने सरकार बनाने का अवसर गंवा दिया था और देवेगौड़ा सरकार वजूद में आई थी. इसके कुछ ही दिन बाद कांग्रेस के भीतर आंतरिक चुनाव संपन्न हुये. इन चुनावों में मैं, भूपिंदर हुड्डा, पी.सी. चाको, गिरिजा व्यास और अन्य ने एकजुट होकर नरसिंहा राव समर्थित पैनल को शिकस्त दे दी थी. नरसिंहा राव को कांग्रेस पार्टी की अध्यक्षता से इस्तीफा देना पड़ा था. लेकिन उन्होंने सीताराम केसरी का नाम आगे कर सुनिश्चित कर दिया था कि पवार अध्यक्ष पर के लिये चयनित ना हों. सीताराम केसरी कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष चुने गये. ग्यारह महीनों के बाद सीताराम केसरी ने देवेगौड़ा सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया. सभी सांसद इस कदम से हतप्रभ और हैरान थे. केवल दो घंटों के भीतर ही पवारसाहेब के आवास पर लगभग 125 सांसद इकट्ठा हो गये थे. कांग्रेस के सबसे वफादार सांसद भी इस प्रतिनिधिमंडल का हिस्सा थे. इस बैठक में एकमत से यह निर्णय हुआ था कि पवार साहेब को नेता प्रतिपक्ष बनाया जाये और केसरी जी को अध्यक्ष पद की कुर्सी छोड़ने का अनुरोध किया जाये. सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि जब यहबैठक चल रही थी, उसी समय प्रधानमंत्री देवेगौड़ा ने खुद संदेश भेजकर कुछ दिनों की मोहलत मांगी थी और आश्वासन दिया था कि इसके बाद वे खुद स्वेच्छा से इस्तीफा दे देंगे और पवार साहेब के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार को समर्थन देंगे. लेकिन कांग्रेस पार्टी में फूट की संभावना से बचने के लिये पवारसाहेब ने यह प्रस्ताव वापिस ले लिया था. उन्होंने अपनी महत्वाकांक्षा का गला घोंटकर पार्टी के हित में नरम रूख अपनाया. उस वक्त भी सीताराम केसरी देवेगौड़ा को समर्थन देने को बिलकुल तैयार नहीं थे. आखिरकार पार्टी ने देवेगौड़ा से इस्तीफे की मांग की और प्रधानमंत्री के तौर पर इंदरकुमार गुजराल को अपना समर्थन दिया. हमने प्रत्यक्ष रूप से देखा कि आखिर किस तरह पवार साहेब एक बार फिर देश के प्रधानमंत्री बनते-बनते रह गये थे.

वर्ष 1998 लोकसभा चुनावों में पवारसाहेब ने तो जैसे एक चमत्कार ही कर दिया था. खुला वर्ग हेतु निर्धारित निर्वाचन क्षेत्रों से आर. एस. गवई, जोगेंद्र कवाडे, रामदास आठवले और प्रकाश आंबेडकर ये रिपब्लिकन पार्टी के चारों नेता विजयी घोषित हुये. अकेले महाराष्ट्र राज्य से कांग्रेस के 43 सांसद चुने गये थे. जबकि राष्ट्रीय स्तर पर पार्टी का प्रदर्शन बेहद खराब रहा था. नतीजा यह रहा है कि केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार बनी. हालांकि बीजेपी की सरकार तो बनी लेकिन यह सरकार महज 13 दिनों में ही गिर गई थी. यह सरकार भी पवारसाहेब के कारण ही गिरी थी.

जिस एक वोट के कारण सरकार गिरी थी, वह मायावती का वोट था. बीजेपी की ओर से प्रमोद महाजन इस पूरे प्रकरण में बारीकी से नजरें गड़ाये हुये थे और अटल और आडवाणी ने मान लिया था कि यह वोट उन्हें ही मिलने जा रहा है. लेकिन पवारसाहेब ने यह वोट कांग्रेस पार्टी के पक्ष में परिवर्तित कर बड़ा उलटफेर कर दिया था. बीजेपी की सरकार गिर चुकी थी और बीजेपी ने विश्वास मत के दौरान हुई इस बड़े उलटफेर के लिये पवार साहेब को ही जिम्मेदार माना था. बावजूद इसके पवारसाहेब को कभी कांग्रेस पार्टी में उस तरीके से खुलकर काम करने और फैसले लेने का मौका नहीं दिया गया जिसके वे हकदार थे. बाद के दिनों में पवार साहेब सदन में संसदीय दल के नेता थे लेकिन उनकी जानकारी के बिना ही कई अहम फैसले लिये जाने लगे थे. साफ था कि पार्टी अपनी मजबूरी में ही किसी तरह पवार साहेब को नाम के लिये संसदीय दल के नेता के तौर पर बनाये हुये थी. पार्टी के तथाकथित नेताओं ने पवारसाहेब को नीचा दिखाने, उन्हें अपमानित करने और पीछे धकेलने का कोई मौका कभी नहीं छोड़ा. संसदीय दल के नेता के तौर पर पवार साहेब की प्रत्येक विषय पर अपनी राय हुआ करती थी और उनकी अपनी एक भूमिका हुआ करती थी. वे अपने इस स्टैण्ड से लोकसभा अध्यक्ष को अवगत कराते थे. लेकिन दुर्भाग्य से पार्टी व्हिप पी.जे. कुरियन अक्सर पवार साहेब की राय के खिलाफ अपनी स्टैण्ड लिया करते थे. पवार साहेब ने संसदीय समितियों में नियुक्ति के लिये सांसदों की जो सिफारिशें की थी, उनमें भी उन्हें बताये बिना ही बदलाव कर दिये जाते थे. एक तरफ दिल्ली दरबार लगातार पवार को अपमानित करने में लगा रहता था, जबकि दूसरी तरफ राज्य में भी पार्टी के भीतर उनके विरोधियों को बड़े पदों पर नियुक्त किया जा रहा था. जाहिर है,पार्टी के भीतर ही चंद नेता पवारसाहेब की ताकत को लगातार कमजोर करने में जुटे थे. आखिरकार जब पानी सर से ऊपर हो गया तो पवार साहेब ने इस पर निर्णायक फैसला लेने का मन बनाया. इसके बाद राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी का गठन का इतिहास सबके सामने है.

राजनीति में भरपूर धैर्य रखने के बावजूद ना चाहते हुये भी अक्सर कड़े और बड़े फैसले भी लेने पड़ते हैं. हालांकि पवारसाहेब की खासियत रही कि वे कभी व्यक्तिगत रंजिश या बैरभाव या बदले की भावना से प्रेरित होकर किसी के खिलाफ कोई काम नहीं करते. यही वजह रही कि एनसीपी के गठन के बाद जब उसे जोरदार सफलता मिली तो हमने कांग्रेस के साथ गठबंधन किया जो आज भी जारी है. साल 2001 में जब मैं पवारसाहेब के 61वें जन्मदिवस समारोह का आयोजक था और इस समारोह में आमंत्रित करने के लिये वाजपेयीजी से मिलने गया था, तो उन्होंने मेरे निमंत्रण पर तपाक से जवाब दिया था, अगर मैं शरदजी के जन्मदिन पर उपस्थित हुआ तो यह हमारी मित्रता के साथ अन्याय और उसका अपमान होगा. शरद जी एक महान व्यवहार का उपहार हैं. मैं समारोह में अवश्य आऊंगा.

मुंबई में आयोजित समारोह में सभी पार्टियों के बड़े नेता उपस्थित रहे और विज्ञान भवन में उनके 75वें जन्मदिन के समारोह का तो मैं वर्णन ही क्या करूं ? आज भी देश के तमाम जागरूक नागरिक उस समारोह में मंच के दृश्य को याद करते हैं. इस अवसर पर सभी विचारधाराओं और दलों के प्रमुख और वरिष्ठ नेता पवारसाहेब को जन्मदिन की बधाई देने के लिये मौजूद रहे थे. बतौर आयोजक यह मैं कह सकता हूं कि उस अवसर पर उपस्थित होने के लिये किसी भी नेता ने किसी भी कारण से असहमति या असमर्थता नहीं दर्शाई थी. सभी ने समारोह का निमंत्रण तत्काल स्वीकार किया था और कार्यक्रम में उपस्थित भी हुये थे. आज भी संसद में हमारे सम्मानित प्रधानमंत्री से लेकर देश के कोने-कोने में मौजूद सभी पार्टियों के वरिष्ठ नेता उनसे बातचीत और राय-मशविरा करते हैं और उनका मार्गदर्शन भी प्राप्त करते हैं. आखिर देश में ऐसे कितने नेता हैं जिन्हें इस तरह का सम्मान हासिल है? कम से कम मैं तो वर्तमान में देश में उनके कद का ऐसा कोई नेता नहीं देख पा रहा हूं. प्रधानमंत्री के तौर पर अपने कार्यकाल के दौरान डॉ. मनमोहन सिंह किसी भी महत्वपूर्ण मसले अथवा विषय पर हमेशा पवारसाहेब से सलाह-मशविरा जरूर किया करते थे.

उस दौरान दिल्ली में सक्रिय सभी अग्रणी और वरिष्ठ नेतागण इस सच्चाई को भली-भांति जानते थे कि अगर प्रधानमंत्री, सांसदों को कोई भी महत्वपूर्ण संदेश देना चाहते हैं या फिर किसी विषय पर अन्य वरिष्ठ नेताओं से बातचीत करना चाहते हैं, तो इस बारे में पहलकदमी के लिये अगर प्रधानमंत्री की कोई पसंद थी और अपनी ओर से वे किसी को भेजते थे, तो वे शरदपवार साहेब ही थे.

वर्ष 2004 से 2014 की अवधि को ग्रामीण भारत का स्वर्णकाल माना जाता है. विशेषज्ञ भी इससे सहमत हैं कि यही वह दौर था जब ग्रामीण अर्थव्यवस्था को नये आयाम मिले और वह शानदार ढंग से फलने-फूलने लगी. कृषि से जुड़ा कोई भी-किसान या व्यक्ति इन 10 सालों का जिक्र बड़ी ही कृतज्ञता के साथ करता है. कृषि और ग्रामीण विकास पवारसाहेब के लिये एक मिशन से कम नहीं है. दिल्ली । में सत्तासीन दिग्गजों को पता है कि कैसे वे कृषि क्षेत्र के विशेषज्ञों से चर्चायें करते हैं, वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारियों को अपने विश्वास में लेकर कैसे उनसे काम लेते हैं और उनकी क्षमताओं का दोहन करते हैं. वे हमेशा नई चीजें के प्रति उत्सुक रहते हैं और किसी भी क्षेत्र में नवीन परिवर्तनों और अनुसंधानों पर पैनी नजर रखते हैं और उनके प्रति सचेत रहते हैं. इस उम्र में भी वे जिस तरह की उत्सुकता रखते हैं और अपनी उत्सुकता के कारण जिस प्रकार से वे विषयों को जानने- समझने के लिये प्रयासरत रहते हैं, वह हर किसी को हैरान कर देती है. मुझे लगता है कि उनकी असीमित ऊर्जा और काम करने की उनकी अंतहीन इच्छा का रहस्य उनका अथक परिश्रम है.

यह हमारा परम सौभाग्य है कि हमारे पास उनके जैसा एक नेता है. उनके 80वें जन्मदिन के अवसर पर मैं केवल ईश्वर से प्रार्थना करता हूं कि उन्हें दीर्घायु जीवन प्रदान करें ताकि वे देश और समाज के लिये और ज्यादा कार्य कर अपना योगदान दे सकें.