वर्तमान परिस्थितियों को देख फिर इमरजेंसी याद आती है

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    बीजेपी नेता बार-बार 1975 में लगाई गई इमरजेंसी की जनता को याद दिलाते रहते हैं, जबकि आज की युवा पीढ़ी को 46 वर्ष पहले के उस घटनाक्रम से सरोकार नहीं है. आखिर अतीत से कब तक चिपके रहना चाहिए? आगे बढ़ते रहने में ही जीवन की सार्थकता है. आज भी माहौल ऐसा बना दिया गया है कि आपातकाल का स्मरण हो आता है. आज भी शासकों में तानाशाही प्रवृत्ति बनी हुई है वे विपक्ष की बात सुनना ही नहीं चाहते. महिनों से किसान आंदोलन चल रहा है लेकिन सरकार चर्चा को तैयार नहीं है. जो सरकार की नीतियों से असहमत है, उसे देशद्रोही मान लिया जाता है.

    सरकार बगैर किसी बहस के अपने बहुमत के बल पर झटपट कानून पास करा लेती है. विधेयक को चयन समिति के पास भेजना जरूरी नहीं समझा जाता. अभिव्यक्ति की आजादी की मांग करनेवालों के खिलाफ सरकार का रवैया काफी सख्त है. अच्छे-अच्छे प्रशासकों और बुद्धिजीवियों को देनेवाली जेएनयू को राष्ट्रद्रोहियों का अड्डा बताकर बदनाम किया जाता है. यदि इमरजेंसी में नेताओं को जेल भेजा गया था तो आज भी गरीबों व आदिवासियों के हक की बात करनेवाले पढ़े-लिखे बुद्धिजीवियों को जेल में रखा जाता है और स्वास्थ्य खराब होने पर भी जमानत पर नहीं छोड़ा जाता. संसद में विपक्ष की राय कोई महत्व नहीं रखती. क्या यह स्थितियां इमरजेंसी की याद नहीं दिलातीं?