- मोदी-शाह की जोड़ी को राष्ट्रीय काट देने में भी सक्षम
1960 में जब पं. जवाहरलाल नेहरू ने भाषाई राज्यों के गठन को हरी झंडी दी एवं महाराष्ट्र की स्थापना के लिए मुंबई में रैली की तब उन्होंने कहा था कि पूर्व उपप्रधानमंत्री यशवंतराव चव्हाण (Yashwantrao chavan) में भारत का नेतृत्व करने की क्षमता है. अफसोस कि 60 वर्षों बाद आज तक एक भी मराठी माणुस भारत का प्रधानमंत्री नहीं बन पाया. यशवंतराव के शिष्य और आधुनिक राजनीति के बाहुबली शरद पवार (Sharad Pawar) और प्रधानमंत्री पद के बीच 2004 से आंखमिचौली चल रही है. यूपीए के अध्यक्ष बनने की चर्चा को भले ही पवार ने खारिज किया हो, लेकिन उनको जानने वाले यह जानते हैं कि अगर जो बिडेन (Joe biden) 78 वर्ष की आयु में अमेरिका के राष्ट्रपति बन सकते हैं तो 83 वर्ष (2024 में पवार की आयु) में एनसीपी के मुखिया प्रधानमंत्री क्यों नहीं बन सकते! किसान आंदोलन की आड़ में जब विपक्षी दल राष्ट्रपति से मिलने पहुंचा, उसके बाद से इस बहस का अचानक शुरू होना महज संयोग नहीं है.
जोड़-तोड़ के पुराने महारथी
पवार और जोड़-तोड़ का बहुत पुराना नाता है. जब उन्होंने देखा कि कांग्रेस उन्हें सीएम नहीं बनाएगी तो उन्होंने कांग्रेस को ही फोड़ डाला था और 70 के दशक में पुलोद की सरकार बनाकर सबसे युवा मुख्यमंत्री बन गए. उसके बाद भी उनका जब मन किया, तब वे कांग्रेस में शामिल हो गए और जब दिल किया, तब बाहर! आखिरी बार उन्होंने सोनिया के विदेशी मूल का मुद्दा उठाकर 1998 में कांग्रेस जरूर छोड़ दी, लेकिन मजबूरी यह हुई कि 1999 में महाराष्ट्र में विलासराव देशमुख की सरकार बनी और उसमें राकां को सहयोगी दल के रूप में शामिल होना पड़ा. केन्द्र में वाजपेयी सरकार से मधुर संबंधों के चलते पवार ने अपने लिए ‘लाल-बत्ती’ का जुगाड़ कर रखा था. उनका वनवास 2004 में खत्म हुआ जब देश में पहली बार यूपीए की सरकार बनी. उस समय भी एक दौर ऐसा आया था जब लोगों को लगा कि सोनिया पवार को पीएम बना सकती हैं. चूंकि सोनिया को प्रणब को पीएम नहीं बनाना था, इसलिए पवार ने पहली बार लेफ्ट और यूपीए के बाकी साथियों के साथ मिलकर लामबंदी भी की थी. लेकिन सोनिया प्रणब की तरह ही पवार के पैंतरों से भी भली भांति वाकिफ थीं, इसलिए उन्हें कृषि मंत्रालय सौंप दिया गया. पवार का पावर तो बढ़ा, लेकिन पीएम पद का सपना पूरा नहीं हो पाया. उसके बाद 2009 में कांग्रेस थोड़ी मजबूत हुई, तब भी किसी को अंदाज नहीं था कि मनमोहन सिंह फिर से पीएम बन जाएंगे.
उस समय पवार का नाम पीएम पद के लिए चला जरूर, लेकिन यूपीए में उनको खास तवज्जो नहीं मिली. सोनिया ताकतवर होती चली गईं और पवार कमजोर! 2014 के बाद जब कांग्रेस का पतन शुरू हुआ तब पवार ने एक बार फिर पैंतरा बदला और वे बीजेपी से नजदीकियां बढ़ाने लगे. पहले राष्ट्र और फिर महाराष्ट्र में बीजेपी और नरेन्द्र-देवेन्द्र की जोड़ी को बिन-मांगा समर्थन देकर नई चाल चली. मोदी तो बारामती भी हो आए और वहां यह तक बोल आए कि महीने में जब तक वे 2-3 बार पवार से सलाह-मशविरा नहीं करते, तब तक उनका काम नहीं चलता. दोनों जानते हैं कि इसमें कितनी सच्चाई है! पवार चाहते थे कि देवेन्द्र उनकी बैसाखियों का इस्तेमाल करें, लेकिन फडणवीस भी नहले पर दहला मारने वाले राजनेता हैं. उन्होंने पवार के बजाय शिवसेना को ही गले लगाना मुनासिब समझा.
कांग्रेस के सामंती रवैये से यूपीए परेशान
2019 में मोदी-2 के बाद वैसे ही यूपीए की हालत खस्ता होते जा रही थी. इसका एक प्रमुख कारण है गांधी परिवार का सामंती व्यवहार! सोनिया चाहती हैं कि किसी भी तरह राहुल गांधी का उद्धार हो जाए और राहुल का नेतृत्व स्वीकार करने को सोनिया के नव-रत्न अब भी तैयार नहीं हैं. यही वजह है कि मध्य प्रदेश की सरकार चली गई, कर्नाटक में राहुल के करीबी को सरकार से हाथ धोना पड़ा. राजस्थान की सरकार भी अधर में लटकी है. ऐसे में यूपीए के बाकी सहयोगी दलों को लगता है कि जब कांग्रेस में ही एकजुटता नहीं है तो यूपीए का भविष्य राहुल गांधी के हाथों में कैसे सुरक्षित रहेगा. पवार की नेतृत्व क्षमता के बारे में अधिकांश विपक्षी दल बहुत कुछ जानता है. डीएमके हो या केसीआर, ममता हों या मुलायम, फारूक हों या येचुरी और चंद्राबाबू हों या मायावती, हर किसी से पवार के कोई न कोई जुगाड़ के संबंध हैं. क्रिकेट हो या राजनीति की पिच, पवार हर खेल के महारथी हैं. हिन्दी भाषा के भले ही वे विद्वान न हों, लेकिन उनकी पकड़ इतनी भी कमजोर नहीं है कि वे संवाद न साध सकें. उनकी इन खूबियों के कारण ही यूपीए के कुछ नेता चाहते हैं कि वे ही कमान संभालें.
सरकार बनाना-गिराना उनके बाएं हाथ का खेल
देश में राजनीति को लेकर जितने प्रयोग पवार ने किए हैं, उतना शायद ही और किसी नेता ने किया होगा. 2014 के बाद से देश में मोदी-शाह पैटर्न की राजनीति भी पवार पैटर्न से ही प्रेरित रही है. मोदी-शाह जिस तरह हर हाल में बीजेपी की सरकार बनाने के लिए किसी भी स्तर के जोड़-तोड़ से परहेज नहीं करते, उससे कहीं ज्यादा पवार करते आए हैं. सबसे बड़ा धमाका उन्होंने 2019 में महाराष्ट्र में महाविकास आघाड़ी बनाकर किया था. शिवसेना को साथ लेकर कांग्रेस-राकां कभी सरकार बना सकती है, यह तो कोई सोच भी नहीं सकता था. जाहिर है जहां आम नेताओं की सोच खत्म होती है, पवार वहां से सोचना शुरू करते हैं. ऐसे ही महाविकास आघाड़ी के पैटर्न को पवार अब महाराष्ट्र से आगे बढ़ाकर राष्ट्र तक ले जाना चाहते हैं. वे अपना कद बढ़ाना और बढ़वाना भी बखूबी जानते हैं. उन्होंने सचमुच यूपीए की कमान संभाल ली तो वह दिन दूर नहीं जब मोदी-शाह को राष्ट्रीय स्तर पर काट देने वाला एक पर्यायी बाहुबली नेता देश को देखने को मिल सकता है.