अदालत की नाराजगी के बाद ही क्यों जागती हैं सरकारें?

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    भारत के संविधान में तीनों स्तंभों की भूमिका तय है. उनकी जिम्मेदारियां भी स्पष्ट रूप से परिभाषित हैं. इसके बावजूद केंद्र या राज्य सरकारों के ज्यादातर फैसले अदालतों के आदेश के बाद हो रहे हैं. पहले भी ऐसा होता रहा है. पर हाल के कुछ वर्षों में इस तरह के उदाहरणों की संख्या बढ़ती हुई दिखती है. इसमें कई फैसले ऐसे हैं, जिनके मामलों के अदालत तक जाने की नौबत ही नहीं आनी चाहिए थी. पिछले एक पखवाड़े में ही नीट पोस्ट ग्रेज्युएट में परीक्षा के पहले पैटर्न बदल दिए जाने से लेकर सेना में महिलाओं को ज्यादा बड़ी भूमिका देने, लखीमपुर खीरी कांड में चार दिन बाद भी आरोपियों के खिलाफ गिरफ्तारी तो दूर उनके खिलाफ एफआईआर तक दर्ज नहीं होने जैसे दर्जनों मामले हुए हैं. सुप्रीम कोर्ट द्वारा स्वत: संज्ञान लिए जाने के बाद लखीमपुर खीरी मामले में ताबड़तोड़ कार्रवाई हुई. एफआईआर हो गई, रातों-रात दो आरोपी गिरफ्तार हो गए. मंत्री पुत्र आशीष मिश्रा से 12 घंटे पूछताछ के बाद उसे गिरफ्तार कर लिया गया.

    पेट्रोल-डीजल को जीएसटी के दायरे में लाने के बारे में केरल हाईकोर्ट में दायर याचिका के बाद जीएसटी परिषद ने इस मुद्दे पर विचार किया. पेट्रोल और डीजल की कीमतें और उन पर लादे गये टैक्स का भारी-भरकम बोझ इस वक्त आम लोगों के लिए सबसे बड़ा मुद्दा है. हर बार जब वह अपनी गाड़ी में पेट्रोल या डीजल भरवाने जाता है या रसोई गैस के सिलेंडर का भुगतान करता है, ये रकम उसे चुभती है.

    आखिर सरकार की भूमिका क्या है?

    ये सवाल भी उसके मन में उठता है कि जब सब कुछ बाजार को ही तय करना है, तो कल्याणकारी उद्देश्य से बनाई जाने वाली सरकार की भूमिका क्या है? कोरोना से मौतों के बाद परिजनों को 50-50 हजार रुपए मुआवजा देने का मामला भी ऐसा ही था. मुआवजे की रकम देकर उस परिवार के सदस्य को तो हम वापस नहीं ला सकते. ना ही इलाज में हुए खर्च की पूरी भरपाई इससे होगी. पर ये रकम उस परिवार को इतना भरोसा देगी कि सरकार उसके साथ है. उसके दुख को बांटने की कोशिश कर रही है. नए कृषि कानून भी इसी तरह का मामला है, जिसे लेकर पूरे देश के किसान आंदोलित हैं. हो सकता है कि सरकार की मंशा अच्छी हो, पर अगर उसके इरादों पर किसी को शंका है, तो इस शंका को दूर करने की जिम्मेदारी भी किसी को तो उठानी होगी. महीनों से चले आ रहे गतिरोध से किसका फायदा हो रहा है? इस तरह के मामलों की सूची बहुत लंबी है. जिला या सरकार के स्तर पर न्याय नहीं मिलने के बाद ही लोग अदालतों का रुख करते हैं. इन सारे प्रकरणों को तटस्थ रूप से देखें, तो साफ दिखता है कि इनमें सरकार को खुद ही व्यावहारिक दृष्टि रखते हुए फैसला कर लेना चाहिए था.

    कर्तव्य याद दिलाने की नौबत क्यों आती है

    केंद्र सरकार की तरफ से सर्वोच्च अदालत में भी कई बार ये कहा जा चुका है कि कार्यकारी फैसले लेने का काम सरकार है. सिद्धांतत: ये सही है, पर इसके बावजूद अदालतों द्वारा बार-बार सरकार को उसके कर्तव्य याद दिलाने की नौबत क्यों आ रही है, इस पर भी गंभीरता से मंथन की जरूरत सारे सत्ताधारी दलों और सरकारों को है. इसका दूसरा पक्ष भी है. अदालतों के हस्तक्षेप के बाद लिए जाने वाले सही फैसलों का सरकार को कोई राजनीतिक लाभ नहीं मिलता. क्योंकि यह माना जाता है कि अदालती कार्रवाई या फैसले के दबाव में आकर उसने ऐसा किया. लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई सरकारों से ये अपेक्षा की जाती है कि वे बड़े और नीतिगत मामलों में तार्किक और सैद्धांतिक रूप से सही फैसले करें. सही नीतियां बनाएं. उसके बावजूद अगर उनके किसी फैसले पर सवाल उठते हैं या उसकी खामियों पर बात होती है, तो उस पर खुले मन से बहस हो. आम जनता और सरकारों के बीच में संवाद को स्थापित करना लोकतंत्र की बुनियादी जरूरत है.