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    भंडारा. अब तक पढ़ाई का मतलब होता था कि उसे स्कूल में दाखिला लेना है. पूरे साल हाजिरी लगानी है. परीक्षा देना है. परीक्षा में पास होने के बाद वह अगली क्लास में जाता था. हर बच्चा स्कूल में आए व पढ़े  इसके लिए शिक्षा का अनिवार्य किया गया. मेधावी छात्र महंगी स्कूल में पढ़ सके. इसके लिए राइट टू एज्युकेशन के तहत ट्यूशन फीस भुगतान की जिम्मेदारी सरकार ने अपने कंधे पर ली. लेकिन कोरोना ने शिक्षा की धारणा को ही बदल दिया है

      जिसमें पिछले डेढ़  साल से बच्चे स्कूल से दूर है. शिक्षक के दर्शन मोबाइल, टेबलेट या लैपटाप में होते हैं. वहीं से ज्ञान लेना होता है. मोबाइल, लैबटाप का कैमरा शुरू कर परीक्षाएं देनी पड़ती है. प्रोजेक्ट भी घर में बैठ कर सबमिट करने पड़ते हैं. यहां तक की नृत्य स्पर्धा, गायन स्पर्धा और अन्य स्पर्धाएं भी अब आनलाइन तरीके से गुगल मिट के जरिए हो रही है. अब जब शिक्षा का तौर तरीका ही बदल गया है.

    सरकार को निश्चित रूप से उन बच्चों के बारे में चिंतन करना चाहिए. जो मोबाइल या टेबलेट का प्रबंध नहीं कर सकते. अगर सस्ता मोबाइल भी खरीद लिया तब भी डेटा पैक रिचार्ज महंगा लगता है. जिस घर में 1 से ज्यादा बच्चे है. हर बच्चे के लिए मोबाइल या टेबलेट का प्रबंध कैसे संभव हो सकता है. इस संबंध में सरकार को अवश्य रूप से सोचना चाहिए. विडंबना इस बात की है कि शिक्षा क्षेत्र के जानकार एवं जनता के प्रतिनिधियों ने भी इस बात की ओर कोई ध्यान नहीं दिया है. 

    शिक्षकों के लिए आसान नहीं है आनलाइन शिक्षा

     स्कूल एवं अभिभावकों के लिए आनलाइन शिक्षा मजबूरी है. क्योंकि इस सिस्टम में शिक्षक को लगातार बोलते जाना है. पूरे पीरियड में पल भर की भी फुर्सत नहीं होती है. 45 मिनट के आनलाइन पीरियड की तैयारी के लिए शिक्षक को पीपीटी याने पावरपाईंट प्रेजेंटेशन बनाना है. पूरी तैयारी करना है. मसलन एक पीरियड की तैयारी में उसे दो से तीन घंटे देना पड़ता है.

    उसमें भी मोबाइल में रैम की स्पीड, डेटा की स्पीड पर निर्भर है कि उसका पीरियड सही तरीके से विद्यार्थी देख पा रहे है या नहीं. जहां तक सीबीएसई स्कूल के शिक्षकों की बात है, वे 80000 रु. प्रति माह कमाने वाले सरकारी शिक्षक की तुलना में दोगुना काम कर रहे हैं. लेकिन अधिकांश निजी स्कूल शिक्षकों को इस समय बमुश्किल 8000 रु. भी नहीं मिल रहे हैं.

     क्यों नहीं हुआ मंथन 

    साल बीत गया, लेकिन बुनियादी बात पर अब तक मंथन नहीं हुआ है कि आनलाइन शिक्षा कितने बच्चों तक पहुंची है. कितने बच्चे वंचित रहे हैं. एक अध्ययन बता रहा है कि महाराष्ट्र में 70 फीसदी बच्चों के पास में मोबाइल  या टेबलेट नहीं है. अगर यह बात सच है तो मामला बेहद गंभीर है. सरकार, जनप्रतिनिधि, शिक्षाविदों को  सोचना चाहिए. क्योंकि इससे देश की एक पीढ़ी का भारी नुकसान हो रहा है और हम हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं.

    टेबलेट और डेटा सरकार दें

    अगर सरकार ने हर बच्चे को शिक्षा का अधिकार दिया है. ऐसे में बच्चे का अधिकार है कि जैसे भी शिक्षा मिलती है, उस तरीके का इस्तेमाल कर वह शिक्षा प्राप्त करें. अब जब आनलाइन शिक्षा का दौर है. इसे टेबलेट,मोबाइल एवं डेटा के जरिए प्राप्त किया जा सकता है. ऐसे में हर बच्चे का अधिकार है एवं सरकार की जिम्मेदार है कि वह इस कमी को दूर करें.

    हर जरूरतमंद को टेबलेट एवं डेटा उपलब्ध कराएं, ताकि कोई भी बच्चा वंचित न रहें. क्योंकि यह बड़ी सच्चाई है कि भंडारा जिले के मुख्यालय भंडारा शहर की झुग्गी बस्तियों में शहर से सटे गांवों में मोबाइल नेटवर्क नहीं काम करता. अगर भंडारा शहर की यह स्थिति है, तो दूर दराज के गांव में क्या स्थिति होगी? इसके अलावा मोबाइल कंपनियों के 1 महीने के डेटा पैक की कीमत किसी भी निम्न मध्यमवर्ग एवं गरीबों के बस में नहीं है.

    सरकार दें टेबलेट : संजय मते

    पिछड़े एवं गरीब बच्चों के अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे संजय मते का मानना है कि हर बच्चे को शिक्षा प्राप्ति का अधिकार है. उसे वंचित नहीं रखा जाता. इसलिए बाह्य शाला विद्यार्थियों की खोज की जाती है एवं स्कूल में दाखिला दिया जाता है, ताकि हर बच्चा पढ़े. अब जब स्कूल बंद है. स्कूली शिक्षा टेबलेट एवं मोबाइल के जरिए पहुंचती है. इसलिए टेबलेट एवं मोबाइल का प्रबंध करने की जिम्मेदारी सरकार की है, वह निभाई जानी चाहिए.

    ग्रामीण क्षेत्र में स्थिति गंभीर : पूजा ठवकर

    बेला गांव की सरपंच पूजा ठवकर यह ग्रामीण क्षेत्र में सक्रिय है. पूरे जिले के ग्रामीण क्षेत्र में आनलाइन शिक्षा की वास्तविकता से वह परिचित है. उन्होने बताया कि ग्रामीण क्षेत्र में आनलाइन शिक्षा में कई बाधाएं है. बच्चों तक पढ़ाई नहीं पहुंच रही है. पूरे घर के पांच सदस्यों के लिए एकमात्र फोन रहता है. ऐसे में बच्चों की पढ़ाई संभव नहीं है.

    बच्चों का अधिकार : धनेंद्र तुरकर

    जिप में निवर्तमान शिक्षा सभापति रहे धनेंद्र तुरकर बताते हैं कि ग्रामीण क्षेत्र में स्कूलों की स्थिति में सुधार के लिए उन्होंने कई कदम उठाए थे. बच्चों की उपस्थिति नहीं रहती थी. हर दिन शिक्षकों के साथ रूबरू होने की वजह से बच्चों की प्रगती पर ध्यान देना संभव होता था. लेकिन अब वह स्थिति नहीं है. ऐसे में स्थिति का ईमानदारी से चिंतन करना जरूरी है. हर बच्चा आनलाइन शिक्षा ले सके, इसकी जिम्मेदारी पूरी तरह से सरकार की है. केंद्र एवं राज्य को इसमें मिलजुल कर काम करना चाहिए.