Bawankule
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    नागपुर. स्थायी निकाय की नागपुर विधान परिषद सीट से पूर्व मंत्री चंद्रशेखर बावनकुले को मिली जीत से भाजपा खेमे में उत्साह की लहर दौड़ गई है. बावनकुले समर्थकों में खास खुशी देखी जा रही है. विविध नाटकीय घटनाक्रम वाले इस चुनाव का परिणाम भाजपा की झोली में गिरने के साथ ही बावनकुले का सक्रिय राजनीति से वनवास भी खत्म हो गया है. उनका पुनर्वास हो गया और इससे ग्रामीण भाग ही नहीं, बल्कि पूरे जिले में भाजपा को संजीवनी भी मिली है. भाजपाई इसलिए उत्साहित हैं कि इस जीत का सुपरिणाम आगामी मनपा चुनाव में भी मिलेगा. पार्टी कैडर का मनोबल इस जीत से बढ़ा है.

    जिले में भाजपा के कद्दावर नेता के रूप में बावनकुले ने अपनी पहचान बनाई थी. जिला परिषद चुनाव, पंचायत समिति चुनावों में भाजपा की सत्ता लाने में उनका रोल हुआ करता था. तात्कालीन भाजपा सरकार ने उन्हें ऊर्जा मंत्री बनाया गया था. कुछ समय तक आबकारी विभाग के मंत्री का प्रभार भी दिया गया था. ग्रामीण में कांग्रेस को टक्कर देने वाले बावनकुले की अचानक ही 2019 के विधानसभा चुनाव में उनकी टिकट पार्टी ने काट कर झटका दिया था. हालांकि संगठन में उन्हें महत्वपूर्ण पद देकर पार्टी ने भरपायी करने का प्रयास किया था लेकिन बावनकुले समर्थकों में उसी समय से भारी असंतोष था. अब जब पार्टी ने उन्हें स्थानीय निकाय की विधान परिषद सीट का उम्मीदवार बनाया तो उनके सामने जीत की चुनौती थी. 

    OBC समाज की नाराजी भी दूर

    विधानसभा में जब मंत्रिमंडल के सबसे तेजतर्रार बावनकुले की टिकट अचानक काट दी गई थी तब केवल उनके समर्थकों में ही नहीं, बल्कि पूरे ओबीसी समाज में भाजपा के खिलाफ रोष देखा गया था. किसी की समझ में यह नहीं आ रहा था कि उनकी टिकट पार्टी ने काटी ही क्यों. पार्टी की ओर से किसी तरह का ठोस कारण भी नहीं बताया गया था. यह बावनकुले के लिए भी अनपेक्षित था. उस समय उनकी पत्नी को टिकट दिये जाने के कयास थे लेकिन टेकचंद सावरकर को टिकट दे दी गई थी. अपनी टिकट कटने के बावजूद बावनकुले ने टेकचंद को जिताने के लिए काम किया और सफल भी हुए. लेकिन वे खुद सक्रिय राजनीति से दूर कर दिये गये थे. संगठन में प्रदेश महासचिव की जिम्मेदारी निभा रहे थे. उनकी टिकट काटने का हर्जाना लेकिन पार्टी को जिप व पदवीधर चुनाव में दिखा.

    जिप व पदवीधर में मिली हार

    बावनकुले की जीत से जिले में भाजपा खेमे में उत्साह कई गुना बढ़ गया है. दरअसल, ग्रामीण में बावनकुले की खास पकड़ है और जिला परिषद में भाजपा की सत्ता उनकी ही देन समझी जाती थी. उन्हें साइड करने के बाद भाजपा को जिला परिषद की सत्ता भी गंवानी पड़ी. पिछले जिप चुनाव में कांग्रेस पूर्ण बहुमत से जिप की सत्ता पर काबिज हो गई.भाजपा की इस करारी हार को भी बावनकुले फैक्टर से जोड़कर देखा गया था. जिले में भाजपा को कमजोर होने का कारण ओबीसी समाज की नाराजी समझी जा रही थी. जिप के बाद पदवीधर चुनाव में भी भाजपा ने अपना दशकों का गढ़ खो दिया. अगर भाजपा यह विधान परिषद चुनाव भी हार जाती तो भाजपायियों का मनोबल निश्चित रूप से और कमजोर होता. 

    प्रतिष्ठा का भी था सवाल

    जीत या हार भाजपा के लिए तो प्रतिष्ठा का सवाल बना ही था क्योंकि यह चुनाव हारते तो लगातार 3 चुनाव में हार का विपरीत परिणाम आगामी मनपा चुनाव पर भी पड़ता. उससे कहीं अधिक बावनकुले के लिए यह चुनाव प्रतिष्ठा का प्रश्न था, क्योंकि उन्हें किसी भी सूरत में सक्रिय राजनीति में आना ही था. अगर चुनाव हार जाते तो पार्टी में उनका कद कम होता और संभव है वे साइड भी कर दिये जाते. उनके करीबी बताते हैं कि उम्मीदवारी मिलते ही वे सक्रिय हो गया. हर एक मतदाता के घर जाकर अपने लिए वोट मांगा. अपने मतदाताओं को अपने पाले में रखने की कवायद में भी सफल हुए.