In the lockdown, the Department of Posts delivered six tons of medicines from one place to another.
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    नागपुर. एक ओर जहां सरकार सरकारी मेडिकल कॉलेजों के अपग्रेडेशन के लिए करोड़ों रुपये देने की घोषणा कर रही है वहीं दूसरी ओर दवाइयों की कमी गंभीर समस्या बनी हुई है. मेडिकल हो या फिर मेयो मरीजों को बाहर से ही अधिकांश दवाइयां खरीदनी पड़ती हैं. निर्धन और जरूरतमंद लोग इलाज तो कराते हैं लेकिन इतनी महंगी दवाइयां नहीं खरीद पाते. प्रशासन की नीति से मरीजों के साथ ही डॉक्टर भी परेशान हैं.

    मेडिकल, मेयो की ओपीडी में पंजीयन के लिए 20 रुपये लगते हैं जबकि सभी तरह के टेस्ट कराने के लिए अलग-अलग शुल्क निर्धारित है. केवल बीपीएल व वरिष्ठ नागरिकों को ही शुल्क से राहत मिलती है लेकिन इनकी संख्या अधिक नहीं है. 20 रुपये की पर्ची लेकर डॉक्टर के पास जांच कराने के बाद दवाइयों की लंबी सूची सौंप दी जाती है. सिटी के एक मरीज ने बताया कि उसकी जांच के बाद डॉक्टर ने जो दवाइयां लिखकर दी थीं उनकी कीमत करीब 2700 रुपये थी. इतनी महंगी दवाइयां खरीदने में असमर्थ होने पर वह वैद्यकीय अधीक्षक कार्यालय गया. वहां उसे फिर से डॉक्टर के पास जाने की सलाह दी गई. 

    नहीं लिखते जेनेरिक दवाइयां

    नियमानुसार मरीजों को जेनेरिक दवाइयां लिखकर दी जानी चाहिए. इस संबंध में सरकार ने भी अधिसूचना जारी की है. साथ ही जेनेरिक दवाइयों के नाम भी तय किये गये हैं लेकिन बहुत कम डॉक्टर जेनेरिक दवाइयां लिखकर देते हैं. ब्रांडेड कंपनियों की दवाइयां महंगी होती हैं. वहीं मेडिकल और मेयो में सभी दवाइयां नहीं मिल पातीं. केवल ओपीडी में ही नहीं बल्कि वार्डों में भी भर्ती मरीजों को 80 फीसदी दवाइयां खरीदनी पड़ रहा है. इस संबंध में मेडिकल के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि सरकार द्वारा दवाइयों की आपूर्ति ही नहीं की जाती. केवल मामूली दवाइयां जिनकी कीमत कम होती है, वही मिलती हैं. दवाइयों के लिए अब तक कई डॉक्टरों और परिजनों के बीच विवाद भी हो चुके हैं लेकिन प्रशासन ने मामले को कभी गंभीरता से नहीं लिया. 

    एम्स से लौटा मरीज, प्राइवेट में कराया इलाज

    ब्रम्हपुरी के स्वास्थ्य विभाग के फायरेरिया विभाग में कार्यरत 3२ वर्षीय युवक दुर्घटना में जख्मी होने के बाद 12 दिसंबर की रात को एम्स में भर्ती हुआ. उसकी एक्सरे, सोनोग्राफी की गई. डॉक्टर ने 13 दिसंबर को जांच की. पैर की हड्डी टूटने से असहनीय वेदना थी. उसे तत्काल ऑपरेशन की जरूरत थी लेकिन डॉक्टरों ने 15 दिन बाद की तारीख दे दी. परिजनों ने अन्य अस्पताल में रेफर करने की मांग की लेकिन डॉक्टरों ने मना कर दिया. जिद करने पर डॉक्टरों ने ‘डामा’ (डिस्चार्ज अगेंस्ट मेडिकल एडवाइस) लिखकर छुट्टी दे दी. दरअसल अस्थिरोग विभाग में केवल 30 बेड हैं. बेड खाली नहीं होने की वजह से ऑपरेशन नहीं हुआ. बाद में उसका एक प्राइवेट अस्पताल में भर्ती कर ऑपरेशन किया गया.