नागपुर. भोजन में बचे हुए खाने को ग्रामीण क्षेत्रों में प्लास्टिक में डालकर सड़क पर फेंकने से मवेशियों में पेट की बीमारियां बढ़ गई हैं. छोटे कार्यक्रमों में भोजन के लिए शहर सहित ग्रामीण क्षेत्रों में प्लास्टिक के पत्तल, द्रोण, कप, गिलास का भी उपयोग किया जाता है. हालांकि आधुनिकता के कारण भले ही समय की बचत हो लेकिन यह पर्यावरण को भी नुकसान पहुंचाती है. इस प्लास्टिक की पत्तल को सड़क पर डालने से जानवर खा जाते हैं. इससे मवेशियों को गंभीर बीमारियां हो रही हैं.
पहले कार्यक्रम में भोजन के लिए पलाश, महुआ, बरगद के पत्तों से पतरावल एवं द्रोण तैयार किए जाते थे. इस थाली में खाने का स्वाद अलग होता है. इनके कारण ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार उपलब्ध था. ये पत्तल जमीन में सड़ जाते थे या फिर जानवर के खाने से कोई दुष्परिणाम नहीं होता है. इससे पर्यावरण संतुलन को बनाए रखने में मदद मिलती थी.
वहीं अब आधुनिकता के नाम पर चमकने वाले बर्तन बढ़ गए हैं. इससे पेड़ों की पत्तियों से प्राकृतिक रूप से बने द्रोण एवं पत्तल का महत्व खत्म हो रहा है. विभिन्न कार्यक्रमों में प्रयुक्त द्रोण, प्याला, पत्तल को कार्यक्रम के बाद खुले में फेंक दिया जाता है. चूंकि प्लास्टिक अपघटित नहीं होता है इसलिए यह जस का तस बना रहता है. नतीजन प्लास्टिक पत्तल के कारण पशुधन खतरे में है. इन प्लास्टिक पत्तलों को कहीं और न फेंककर नष्ट करना आवश्यक है.