akhilesh
अखिलेश यादव

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– राजेश मिश्र

लखनऊ : उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) में मुख्य विपक्षी दल समाजवादी पार्टी (Samajwadi Party) के रविवार में बंगाल की राजधानी कोलकाता में संपन्न हुए राष्ट्रीय अधिवेशन (National Convention) में तीसरे मोर्चे को लेकर नए सिरे से कवायद शुरु करने की बात कही गई है। हालांकि यूपी की जमीन पर और सियासी हालात को देखें तो यहां कम से कम अभी तो किसी तीसरे मोर्चे के कुछ करने धरने की गुंजाइश कम ही नजर आती है। 

उत्तर प्रदेश में पहले से पस्तहाल बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस का तो कोई पुरसाहाल नहीं है। हालांकि साल भर पहले संपन्न हुए विधानसभा चुनावों में पहले से बेहतर प्रदर्शन कर सपा ने जरुर कुछ आस बंधाई थी कि वो कम से कम 2024 में भारतीय जनता पार्टी को वाकओवर नहीं देगी पर सूबे की जमीनी हकीकत कुछ और ही कहानी बयान कर रही है। 

विधानसभा चुनावों के बाद हुए दो लोकसभा के उपचुनावों में अपने आजमगढ़ और रामपुर जैसे मजबूत किले गंवा कर सपा मानसिक रुप से भी पराजित हालात में पहुंच गई है। विधानसभा चुनावों के दौरान उसके साथी बने छोटे दलों में से दो प्रमुख सुहेलदेव राजभर भारतीय समाज पार्टी और जनवादी क्रांति पार्टी छिटक चुके हैं। 

उत्तर प्रदेश के अन्य दो प्रमुख विपक्षी दलों में से बसपा ने जहां किसी गठजोड़ की संभावना से इंकार कर दिया है वहीं कांग्रेस की तमाम ख्वाहिशों के बाद सपा किसी तालमेल के मूड में नहीं दिखती। जाहिर है कि 2024 के महासमर में सपा का यहा तीसरा मोर्चा कुछ कर भी पाएगा इसमें संदेह है। तब तो यहा संदेह और भी बढ़ जाता है जबकि संगठन से लेकर सरकार के कील कांटे दुरुस्त करते हुए बीजेपी ने इस बार मिशन 80 यानी कि सभी सीटें जीतने का नारा दे दिया है। 

अब तक तीसरे मोर्चे के नाम जिन दलों की संभावित जुटान दिखायी दे रही है उनमें ममता बनर्जी, अखिलेश यादव, केसीआर, नवीन पटनायक की पार्टियों के पास कुल 47 लोकसभा की सीटें हैं। महत्वपूर्ण बात यह है किइनमें से कोई भी दल चुनाव में बेहतर प्रदर्शन करने के लिए एक-दूसरे की मददगार नहीं है। ऐसे में इन पार्टियों के एकजुट होने का 2024 में लोकसभा चुनाव के मद्देनजर खास मतलब नहीं रह जाता। कम से उत्तर प्रदेश में अखिलेश को या बंगाल में ममता अथवा नवीन या केसीआर को इस मोर्चे से कोई लाभ होता नहीं दिख रहा है। 

इन परिस्थितियों में तीसरा मोर्चा ख्याली पुलाव से ज्यादा और कुछ नहीं हो सकता है। साफ है कि 2024 के चुनाव में कई दल अकेले अपने-अपने प्रभाव क्षेत्र वाले राज्यों में चुनाव तो लड़ेंगे लेकिन किसी मोर्चा की शक्ल में उन्हें कोई चुनावी फायदा या कांग्रेस और बीजेपी को इसका चुनावी नुकसान नहीं हो सकेगा। 

तीसरे मोर्चे की इस कवायद से इतना जरुर है कि अखिलेश को इसका नुकसान झेलना पड़ सकता है। तीसरे मोर्चे के नाम पर उनकी कांग्रेस से दूरी अल्पसंख्यक मतों को बिदका सकती है और व्यापक स्तर पर गैर बीजेपी दलों के पाले में लाने से भी रोकेगी। इससे अल्पसंख्यकों में जरुर यह संदेश जाने का डर है कि अखिलेश केवल बीजेपी के इशारे पर ही कांग्रेस के खिलाफ मोर्चा बंदी कर रहे हैं।