क्यों है भारत के लिए अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव अहम? जानिए, एक्पर्ट्स का क्या है मानना….  

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मुंबई: अमेरिका (America) में 3 नवंबर को राष्ट्रपति चुनाव (Presidential Elections) हैं। चुनाव ठीक पहले भारत-अमेरिका (India-America) के बीच 2+2 मंत्रीस्तरीय बैठक (2+2 Ministrial Talks) होने जा रही है जिसमें अमेरिका के विदेश मंत्री रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह (Rajnath Singh) और विदेश मंत्री एस जयशंकर (S. Jaishankar) से मुलाकात करेंगे। ऐसे में जहां एक तरफ इस बार के चुनाव में भारतीय-अमेरिकी लोगों के लिए दोनों ही पार्टी, रिपब्लिकन (Republican) और डेमोक्रेटिक (Democratic)  ख़ास अहमियत दे रहीं हैं। चाहे वो भारतीय त्यौहारों में विश करना हो या फिर चुनावी कैम्पेन के में हिंदी का इस्तेमाल दोनों ही पार्टियां भारतीयों को लुभाने की पूरी कोशिश में हैं। जिससे पता चलता है कि अमेरिका में रहनेवाले भारतियों की भूमिका जितनी अहम है, उतना ही महत्पूर्ण ये चुनाव भारत के लिए भी है।  

एक्पर्ट्स की माने तो, पिछले सालों में अमेरिका और भारत के रिश्ते काफी मज़बूत हुए हैं। द्विपक्षीय संबंध के अलावा अर्थव्यवस्ता, रणनीति और सामाजिक कारणों से भी भारत और अमेरिका के संबंध किसी और देश की तुलना में ज्यादा महत्वपूर्ण हैं। 

हिंद-प्रशांत क्षेत्र में द्विपक्षीय रक्षा संबंधों पर चर्च से मज़बूत होंगे रिश्ते

अमेरिका के विदेश मंत्री माइक पोम्पिओ (Mike Pompeo) भारत के साथ तीसरी 2+2 मंत्रीस्तरीय बैठक के लिए रविवार को नई दिल्ली (New Delhi) के लिए रवाना हो गए। बैठक मंगलवार को नई दिल्ली में होगी जिस दौरान दोनों पक्षों के हिंद-प्रशांत क्षेत्र में द्विपक्षीय रक्षा संबंधों और सुरक्षा सहयोग को आगे बढ़ाने के तरीकों पर चर्चा करने की उम्मीद है। चीन (China) के क्षेत्र में अपनी पकड़ मजबूत करने की कोशिश के दौरान इसके मायने काफी बढ़ गए हैं। अमेरिका में तीन नवम्बर को होने वाले राष्ट्रपति चुनाव से पहले यह बैठक खास मानी जा रही है। इंडियन एक्सप्रेस में छपे अपने लेख में राजनीतिक जानकार और विदेश मामलों के एक्सपर्ट अमिताभ मट्टू ने बताया है कि चीन से तनातनी के बीच पिछले कुछ सालों में भारत और अमेरिका के बीच द्विपक्षीय संबंध मजबूत हुए हैं। 

भारत-अमेरिका में आपसी समझौते होते रहेंगे

एक्पर्ट्स का मानना है कि चुनाव जितने के बाद राष्ट्रपति डेमोक्रैट हो या रिपब्लिकन कुछ उतार चढ़ाव के साथ दोनों देशों में आपसी समझौते भी होते रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय पोलिटिकल एक्पर्ट्स भी यही मानते हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार, अमेरिका के रह रहे भारतीयों के राजनीतिक विचार अलग हो सकते हैं लेकिन वे पितृभूमि और जन्मभूमि या कर्मभूमि के बीच में अच्छे रिश्ते ही देखना चाहते हैं। 

चीन से तनातनी के बीच लगातार हो रहे हैं अमेरिका-भारत के रिश्ते मज़बूत

1971 में हुई इंडो-सोवियत ट्रीटी, अमेरिका के पाकिस्तान की ओर झुकाव का ही जवाब था। लेकिन 2020 में चीन से तनातनी के बीच भारत और अमेरिका के बीच संबंध लगातार मजबूत हो रहे हैं। वहीं चीन और अमेरिका के बीच वाकयुद्ध और तनाव जारी है।इस बीच एक्पर्ट्स का मानना है कि भारत जैसी उभरती हुई महाशक्ति के लिए तीन विकल्प हैं, बचाव, संतुलन या पीछे हटना। पहला विकल्प कहता है कि चीन के साथ आपसी हितों केलिए सहयोग जारी रखा जाए। बाइडेन की सरकार बनती है तो ज्यादा संभावना है कि भारत को भी इसीरास्ते पर चलना होगा। अगर भारत चुपचाप चीन के सामने घुटने टेक देता है तो अमेरिका के साथ संबंध खराब हो सकते हैं और यह स्वाभिमान के भी खिलाफ है। चीन के साथ संतुलन बनाना बहुत हीचुनौतीपूर्ण काम है और यह ट्रंप शासन की मांग भी हो सकती है। ऐसे में भारत को अमेरिका के साथ और भीज्यादा मजबूत संबंध बनाने होंगे। रिपब्लिकन राष्ट्रपतियों के शासन में भले ही बहुत सारे विवाद होते रहे हों लेकिन भारत के साथ संबंध हमेशा मजबूत हुए हैं। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद अगर हम जॉन एफ कैनडी और जॉर्ज बुश का भी उदाहरण लेते हैं तो दोनों ही दिल्ली पहुंचे थे और भारत के साथ उत्साह से रिश्ते मजबूत करने के पक्ष में दिखाई दिए। 

तो और रिश्ते मज़बूत होते….

जॉन कैनडी ने हार्वर्ड के प्रोफेसर को भारत में अपना राजदूत बनाया था जिसके माध्यम से तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू और कैनडी के बीच बातचीत लगातार होती रहती थी। एक रिपोर्ट के मुताबिक, जानकारों का कहना है कि इन बातचीत में अक्सर वैचारिक कम्युनिकेशन भी एक्सचेंज होती थी। कैनडी के शासनकाल में भारत को कई आर्थिक सहायताएं मिलीं और 1962 के युद्ध में भी सैन्य सहायता मिली। अगर 1963 में कैनडी की हत्या न हुई होती और 1964 में नेहरू का निधन न हुआ होता तो भारत और अमेरिका के बीच रिश्ते और मजबूत हो गए होते। 

परमाणु समझौते में भी बुश की ही भूमिका थी  

भारत और अमेरिका के बीच परमाणु डील में बुश की अहम भूमिका थी। भारत-अमेरिका के संबंधों का बुरा दौर अमेरिका में रिपब्लिकन रिचर्ड निक्सन और बिल क्लिंटन के शासनक के दौरान माना जाता है। एक्पर्ट मानते हैं कि, निक्सन के कार्यकाल में अमेरिका का रुख पाकिस्तान की तरफ मुड़ गया था। 1990 के बाद क्लिंटन के शासनकाल में भी परमाणु समझौता रद्द कर दिया गया और कश्मीर को अलग करने की बातें होने लगीं। हालांकि 1998 के परमाणु परीक्षण के बाद अमेरिका के साथ उस समय के विदेश मंत्री जसवंत सिंह ने फिर से संवाद स्थापित किया और संतुलन बनाने का काम किया था।