संपादकीय

Published: Nov 10, 2023 01:46 PM IST

संपादकीयमंडल-कमंडल की राजनीति से मुक्ति जरूरी, जाति से अधिक वर्ग का महत्व

कंटेन्ट राइटरनवभारत.कॉम
कंटेन्ट एडिटरनवभारत.कॉम

– नरेंद्र शर्मा

बिहार सरकार (Bihar Government) ने राज्य के जाति सर्वे के आधार पर ग्रैनुलर (अधिक परिभाषित व विस्तृत) आर्थिक डाटा पेश किया. सर्वे में 6,000 रूपये मासिक आय के आधार पर जो गरीबी का अनुमान लगाया गया है, वह उससे अलग नहीं है जो नीति आयोग ने अलग से एनएफएचएस 2019-21 के आधार पर बिहार की बहुआयामी गरीबी का अंदाजा लगाया था. जाति सर्वे में बिहार के लगभग 34 प्रतिशत परिवारों को गरीब बताया गया है जबकि नीति आयोग ने राज्य की 33.4 प्रतिशत जनसंख्या को गरीब बताया था.

नितीश कुमार की सरकार ने जाति सर्वे को आर्थिक सशक्तिकरण से जोड़ा है व कहा है कि वह 65 प्रतिशत आरक्षण करने के लिए जल्द ही विधेयक लेकर आयेगी. चूंकि ईडब्लूएस के लिए अलग से 10 प्रतिशत आरक्षण बरकरार रहेगा इसलिए राज्य में कुल आरक्षण 75 प्रतिशत हो जायेगा, जोकि सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित 50 प्रतिशत की सीमा से अधिक होने के नाते कानूनी विवाद में फंस सकता है. बिहार ने अपने लिए विशेष दर्जे की मांग की है ताकि गरीबी से लड़ने के लिए उसे केंद्र की अतिरिक्त मदद मिल सके.

जाति आधारित आरक्षण गरीबी दूर करने का उचित मार्ग नहीं है. अगर इस प्रकार के आरक्षण से गरीबी दूर होती तो आजादी के सात से अधिक दशकों के बाद भी देश के  80 करोड़ लोगों को मुफ्त राशन देने की योजना अगले पांच वर्ष तक बढ़ाने की आवश्यकता नहीं पड़ती, देश के सभी नेताओं को समझना जरूरी है कि जनसंख्या अधिक है, आर्थिक लड्डू छोटा है; मांग ज्यादा है, अवसर सीमित हैं. इसलिए आरक्षण का प्रतिशत बढ़ाने से समस्या का समाधान नहीं होगा. अर्थव्यवस्था को बेहतर करके रोज़गार के अवसर बढ़ाने से मदद मिलेगी. जाति की समस्या सामाजिक है.

आंध्रप्रदेश का अनुभव बताता है कि विशेष दर्जा प्राप्त करने से भी कुछ खास हासिल होता नहीं है. लेकिन केंद्र सरकार बिहार में गरीबी उन्मूलन की गति को तेज़ कर सकती है, जल्द गठित होने वाले 16वें वित्त आयोग के संदर्भ की शर्तों के जरिये. विशेष दर्जा प्राप्त राज्यों को जो संसाधन लाभ मिलता है, वह यह है कि उन्हें केंद्र द्वारा प्रायोजित योजनाओं के फंड्स में तुलनात्मक दृष्टि से कम योगदान करना पड़ता है. वित्त आयोग के लिए यह संभव है कि वह ऐसा फार्मूला विकसित करे जिसमें भारत के गरीब राज्यों को इस प्रकार का सहयोग मिले. 

बिहार में जो आरक्षण का प्रतिशत बढ़ाना प्रस्तावित है उससे न केवल इस राज्य में बल्कि पूरे देश की अर्थव्यवस्था, समाज व राजनीति पर गहरा प्रभाव पड़ेगा. सभी जातियां अपनी संख्या के अनुपात में आरक्षण लेने के लिए आंदोलन करने लगेंगी और उप-जाति स्तर पर अनेक दावेदार उत्पन्न हो जायेंगे. आरक्षण के लड्डू में हिस्सेदारी के लिए जातिगत फासले बढ़ जायेंगे और सामाजिक तनाव में वृद्धि होगी. सामाजिक सुधारों के बावजूद ओबीसी, ईबीसी व दलित बुनियादी मानव सम्मान से वंचित रहे हैं. अगर सभी लोगों को सम्मान नहीं मिलेगा तो लोकतंत्र को बचाना कठिन हो जायेगा.

बिना आर्थिक लोकतंत्र के सामाजिक लोकतंत्र संभव नहीं है. यही वजह है कि आर्थिक स्थितियों पर जाति अनुसार डाटा का होना आवश्यक है. यह तो मालूम ही होना चाहिए कि किस जाति के पास कितनी जमीन है (जिसे जमीनों के बैनामा रिकार्ड्स से आसानी से जाना जा सकता है). गौरतलब है कि नितीश कुमार सरकार ने भूमि सुधारों के लिए डी बंद्योपाध्याय आयोग (2008-2009) और कॉमन स्कूल सिस्टम के लिए मुचकुंद दुबे आयोग (2007) गठित किये थे. इन्हें लागू करना तो दूर, इनकी चर्चा तक भी नहीं की जाती है. क्यों? क्या डर है कि आरक्षण का लाभ उठा रहीं असरदार व रईस जातियों की आर्थिक स्थिति सार्वजनिक हो जायेगी? 

समय आ गया है कि जाति व धर्म पर आधारित ‘पहचान की राजनीति’ से हटकर ‘वर्ग राजनीति’ को अपनाया जाये ताकि सभी वर्गों की गरीबी व बेरोजगारी को दूर किया जा सके और सभी को शिक्षा उपलब्ध करायी जा सके. यह बात केवल बिहार के लिए नहीं बल्कि पूरे देश के लिए जरूरी है ताकि मंडल-कमंडल की विभाजनकारी राजनीति से मुक्ति मिल सके.