नवभारत विशेष

Published: Dec 31, 2020 10:50 AM IST

नवभारत विशेषकिसानों को ‘साहूकार राज’ का डर

कंटेन्ट राइटरनवभारत.कॉम

एक माह से अधिक हो गया लेकिन कड़ाके की ठंड के बावजूद किसान आंदोलन जारी ही है. आंदोलनकारियों (Kisan Andolan) को आशंका है कि ठेका कानून से महाजन राज का दौर शुरू हो जाएगा और कारपोरेट कंपनियां उनकी जमीन छीन लेंगी. यद्यपि केंद्रीय मंत्रियों का कहना है कि किसान से उसकी जमीन कोई नहीं छीन सकता लेकिन यह तथ्य भी अपनी जगह है कि ठेका कानून की धारा9 के अनुसार किसानों को कर्ज लेने के लिए ऋण देने वाली संस्था के साथ एक अलग व समानांतर कांट्रैक्ट करना होगा.

उसे कृषि लागत का सामान लेने के लिए साहूकार(Moneylenders) या कंपनी के पास जमीन गिरवी रखने पर ही कर्ज मिलेगा. इस तरह कर्ज अदा न करने पर उसकी जमीन छिन सकती है. कृषि कानूनों के विरोध में पंजाब में 31 कृषि संगठनों ने राज्य को पूरी तरह बंद कर दिया है. टोल प्लाजा बंद है. अंबानी का विरोध जताते हुए रिलायंस के मॉल और पेट्रोल पंप बंद कर दिए गए हैं. लोग मोबाइल टावर तोड़ रहे हैं और जियो सिमकार्ड का बहिष्कार कर रहे हैं. ऐसा विध्वंसक रवैया कितना सही है?

पहले भी होते रहे हैं आंदोलन

यह समझने के लिए कि किसान मोदी सरकार के कानूनों से इतने नाराज क्यों हैं और केंद्र सरकार क्यों आंदोलन को काबू करने में विफल रही है, यह जरूरी है कि पंजाब की राजनीति में किसान आंदोलनों की भूमिका और कृषि बिलों को लेकर किसानों को हो रही फिक्र की जड़ तक जाएं. ब्रिटिश राज के दौरान किसान आंदोलन इसलिए हुए, क्योंकि उनका मकसद था- कैनाल टैक्स के जरिये कर बढ़ाने और लगान में वृद्धि के सरकार के प्रयासों का विरोध करना. ततकालीन पंजाब रियासत में किसान इसलिए विरोध कर रहे थे, क्योंकि जमींदारों और अधिकारियों द्वारा छीनी गई जमीन को वे वापस हासिल करना चाहते थे. काश्तकारों ने जमींदारों को बटाई या उसका हिस्सा देने से इनकार कर दिया था.

वर्ष 1907 के ‘कैनाल कॉलोनी आंदोलन’ (Punjab Canal Colonies) में पंजाब के कृषकों को सरदार अजित सिंह जैसे बड़े नेताओं ने संगठित किया था. वे शहीदे आजम भगत सिंह के चाचा थे. सरदार अजित सिंह ने ‘पगड़ी संभाल जट्टा’ आंदोलन को संगठित किया था. यह आंदोलन 1906 के किसान विरोधी कानून, ‘पंजाब कॉलोनाइजेशन एक्ट’ के विरोध में था. इसमें पानी की दरें बढ़ाने के प्रशासन के आदेश का भी विरोध किया गया था.  काश्तकारों के अधिकारों को लेकर सामंती कृषि प्रणाली में जो अंतर्विरोध थे, उनके कारण विशेष रूप से कम्युनिस्ट पार्टी की ‘किसान सभा’ के तहत किसान संगठित हुए थे. वर्ष 1930 के दशक में ‘किसान सभा’ के आंदोलन ने किसानों को जल और भू-राजस्व के मुद्दों पर संगठित किया था. ‘किसान सभा’ के आंदोलनों की सर्वोच्च उपलब्धि आजादी के बाद के ‘लैंड सीलिंग एक्ट’ के रूप में सामने आई थी.

एमएसपी की कानूनी गारंटी की मांग

किसानों के संघर्ष के वर्तमान चरण का उद्देश्य है, एमएसपी के लिए एक सुरक्षा तंत्र निर्मित करना. पंजाब के किसान इस बारे में सजग हैं कि ‘एमएसपी’ की अनुपस्थिति में किसानों के हित पर क्या दुष्प्रभाव होगा. पंजाब में गेहूं और धान के लिए एमएसपी पर सरकार की तरफ से शत-प्रतिशत खरीद है, पर मक्का जैसी फसल के लिए यह लागू नहीं होता. इसके लिए केंद्र सरकार हर वर्ष घोषणा करती है, पर राज्य में उस दर पर शायद ही कोई खरीद होती हो. एमएसपी की घोषणा के बाद भी जिन फसलों को लेकर सरकारी खरीद का कोई आश्वासन नहीं मिलता, उन फसलों को खुले बाजार में कम मूल्य पर बेचने के अलावा किसानों के पास और कोई चारा नहीं होता. यह समझा जाना चाहिए कि एमएसपी पंजाब के किसानों के लिए जीवन और मृत्यु का प्रश्न है.

‘हरित क्रांति’ ने पंजाब को देश की रोटी की टोकरी में जरूर बदल दिया, पर साथ ही कृषि को श्रम प्रधान प्रक्रिया से एक पूंजी प्रधान प्रक्रिया में बदल डाला. औपचारिक ऋण की सुविधा न होने के कारण कृषि को बहुत हद तक उधार के लिए निजी संस्थानों और व्यक्तियों पर निर्भर रहना पड़ता है. पंजाब में गरीब और मध्यम वर्ग के किसानों के लिए ऋण का बोझ अवसाद और तनाव का मुख्य कारण है. यह बहुत जरूरी है कि सरकार पंजाब में कृषि उत्पादों की व्यावहारिकता के पहलू को ध्यान में रखते हुए ‘एमएसपी’ के समर्थन की जरूरत को समझे. आर्थिक दृष्टि से इस क्षेत्र को अस्थिर बना देना सही नहीं होगा, क्योंकि अब भी यह रोजगार का सबसे बड़ा क्षेत्र है. उबलते हुए क्रोध के राजनीतिक पहलू को देखते हुए भी यह जरूरी है कि भारत सरकार किसानों के आक्रोश को तुरंत शांत करे.