ग्रामीणों के जंगल पिकनिक (अडवी तीर्थम) की शुरूआत, सदीयों पुरानी परंपरा बरकरार

  • बैलगाडी बनी आवागमन का जरीयां

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– सतीश पडमाटिन्टी 

गड़चिरोली. आज के भागदौड़ एवं व्यस्ततम जिन्दगी मे लोग अधिकांश धार्मिक आयोजनों से खुद को दूर करते आ रहे है. या कहे कम दिलचस्पी दिखाने लगे है. मगर तहसील के ग्रामीण क्षेत्रों मे आज भी धार्मिक मान्यताएँ बखूभी निभाई जा रही है. वह भी सपरिवार एवं पूरी शिद्दत के साथ. इसमे ना समय की कोई सीमा है, ना ही कोई कोताही बरती जाती है. चाहे ये धार्मिक रिवाज घर के चार दिवारी के भीतर का हो या फ़िर खुले आसमान एवं जंगल मे निभानेवाले रिवाज हो, ग्रामीण ये रिवाज आज भी बदस्तूर निभा रहे है.

तहसिल के नडिकुड़ा गांव के ग्रामीणों ने रविवार के दिन सपरिवार अपनी ग्रामीण मर्सडीज (बैलगाड़ी ) मे सपरिवार सवार होकर जाते हुए दिखे. उन्हें जब रोककर इतने तादाद मे कहा जाने की बात पूछी गयी तो ग्रामीणों ने बताया है की वे अपने सदियों पुरानी रिवाज अड़वी तीर्थम का त्यौहार या कहे रिवाज को पुरा करने नजदीखी जंगल मे जाने की बात कही. ग्रामीणों का बैलगाड़ीयों का काफिला देखते ही बनता था, एक साथ यह काफिला आदे दर्जन से ज्यादा की संख्या मे जंगल की ओर कूछ कर रहा था. काफिले मौजूद युवा वर्ग से इस बारे मे पूछा गया तो उन्होने कहा है की वे परिवार समेत एक धार्मिक रिवाज को निभाने जा रहे है।. जो की सुबह से शाम तक होता है.  युवा वर्ग इसे जंगल पिकनिक का नाम दिया. मगर वे इस रिवाज से पूरी तरह से जानकार नही लगे. जबकी काफिले मे मौजूद बुजुर्ग वर्ग ने इस बारे मे पूरी जानकारी दी है.

बुजुर्गों की माने तो यह रिवाज हर वर्ष दशहरा त्यौहार के बाद मनाया जाता है. मगर इस वर्ष अधिक मास के आने के चलते कुछ दिन विलंब से इससे निभाया जा रहा है. इसके तहत वे अपने ग्राम देवता माताराणी (पोचम्मा तल्ली) को गांव की खुशहाली, स्वास्थ्य, अकाल, रोगों से बचाव, अच्छे खरीफ़ फसल की कामना करते है. इसके तहत ग्रामीण जंगल मे इस स्थान पर इकट्टा होकर वहां पर सफाई कर मंडप का निर्माण करते है. जहां चार मध्यम आकार के पथरों को स्थापित करते है. जिन्हे वे अपने देवी देवता के रुप मे मानते है. इन देवी देवताओं को पांच किस्म का भोग चढ़ाया जाता है. इस दौरान मुर्गे की बली भी दि जाने की बात कही है. बली की रस्म होते ही रिवाज मे शामिल सभी लोग पूजा अर्चना कर खाना एवं पकवान बनाकर भोज करते है. इस रिवाज मे परिवार के बड़े, बुजुर्ग एवं बच्चे भी शामिल होते है. इस तरह से इनका पुरा दिन इस रिवाज को निभाने मे गुजर जाता है. जबकी इस दौरान बच्चे अपने बुजुर्गों से पुरानी रिवाजों, जंगली वृक्षों की जानकारी एवं उनके प्रयोग व उपयोग के बारे मे जानकारी हासिल करते है.

आज के समय मे मध्यम नगर एवं शहरी क्षेत्र के लोग इन धार्मिक मान्यताओं के अपेक्षा रिजार्ट एवं पार्कों तक सीमित होते जा रहे है. इसके पीछे वजह अनेक हो सकते है. पहले के समय मे लोग त्यौहारों के छूट्टियों के आते ही अपने पैतृक गांव लौट आते थे. जहां अपने बुजुर्गो के साथ पुरे हर्सोल्लास के साथ त्यौहारों को मनाते थे. मगर इन दिनो यह उत्साह एवं दिलचस्पी मे कमी दिखाई जा रही है. जबकी अपने बेटों के परिवार, बेटियों की परिवार को अपने इर्द-गिर्द देख कर गांवों मे रहने वाले बुजुर्ग काफी प्रसन्न नजर आते थे. वही आज के समय मे गांव के बुजुर्गों को यह खुशी भी नसीब नही हो पा रही है.