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बैतूल. आप यह तो जानते होंगे कि अगर शरीर पर एक भी एक कांटा चुभ जाए तो वो बेहद तकलीफदेह होता है। लेकिन शायद आप यह नहीं जानते कि बैतूल (Betul) में एक ऐसा समुदाय है जो कांटों (Thrones) के बिस्तर पर सोता है। यह उनकी मजबूरी नहीं, बल्कि परंपरा है। जी हाँ हम बात कर रहे हैं मध्य प्रदेश (Madhya Pradesh) के बैतूल (Betul) के एक गांव कि जहाँ  आस्था के नाम पर एक दर्दनाक और खौफनाक खेल खेला जा रहा है।

खुद को बताते हैं पांडवों का वंशज:

खुद को पांडवों का सीधा वंशज बताने वाले यहाँ के रज्जड़ समाज के लोग अपनी मन्नत पूरी करने और अपनी ईष्टदेवी को खुश करने के लिए यह लोग खुशी-खुशी कांटों की सेज पर लेटते हैं। यह उनकी मजबूरी नहीं, बल्कि परंपरा है। और इस परंपरा को इस समुदाय के लोग खुशी-खुशी निभा रहे हैं। अपने इस उत्सव को वो भोंडाई भी कहते हैं। 

क्या है इसके पीछे की कहानी:

बताया जाता है कि पांडवों ने कुछ इसी तरह से कांटों पर लेटकर अपने सत्य की परीक्षा दी थी। अगर हम इनकी मान्यता के पीछे की कहानी को देखें तो हम पायेंगे कि एक बार पांडव कहीं पानी के लिए भटक रहे थे। बहुत देर भटकने पर उन्हें नाहल समुदाय का एक व्यक्ति आता दिखाई दिया। पांडवों ने उस नाहल से पूछा कि इन जंगलों में पानी कहां मिलेगा। लेकिन नाहल ने पानी का स्रोत बताने से पहले इन पांडवों के सामने एक शर्त रख दी। नाहल ने कहा कि, पानी का स्रोत बताने के बाद उनको अपनी बहन की शादी एक नाहल से करानी होगी। 

लेकिन पांडवों की तो कोई बहन नहीं थी। इस पर पांडवों ने एक भोंदई नाम की लड़की को अपनी बहन बना लिया और पूरे रीति-रिवाजों से उसकी शादी उस नाहल के साथ करा दी।विदाई के वक्त नाहल ने पांडवों को कांटों पर लेटकर अपने सत्य होने की परीक्षा देने को कहा। इतना सुनते ही यह सभी पांडव एक-एक कर कांटों पर लेट गए और खुशी-खुशी अपनी बहन को उस नाहल के साथ विदा कर दिया।

कैसे मनाते है ये लोग यह उत्सव:

अब इसी परंपरा को आगे निभाते हुए अगहन मास में रज्जड़ समाज के लोग कांटों की सेज पर लेटकर वो अपनी आस्था, सच्चाई और भक्ति की परीक्षा देते हैं। इन लोगो का यही मानना है कि ऐसा करने से भगवान उनसे खुश होते हैं और उनकी मनोकामना भी पूरी होती है। इस भोंडाई पर्व के लिए इस समुदाय के लोग कई दिन पहले से बेर के कंटीले पेड़ और डाल इकट्ठा करने लगते हैं। वो इन्हें सुखाते हैं, फिर मुख्य आयोजन वाले दिन गाजे बाजे के साथ इन्ही झाड़ियों को लेकर अपने पूजन स्थल तक चलते हैं। फिर इन कंटीली झाड़ियों के कांटों से सेज बनाकर उस पर ये लोग बारी बारी से लोटते हैं। नंगे बदन इन नुकीले काँटों पर लेटकर सत्य और भक्ति का परिचय देते हैं।

यह कहते हैं कि उनकी यह परंपरा पचासों पीढ़ी से चली आ रही है, जिसे निभाते वक्त उनके समाज के लोगों में खासा उत्साह रहता है। ऐसा करके मनो वे अपनी बहन को ससुराल विदा करने का ही जश्न मनाते हैं। यह कार्यक्रम पांच दिनों का होता है और आखिरी दिन कांटों की सेज पर लेटकर यह उत्सव अपने मुकाम पर पहुँचताहै। 

काँटों पर लेट निभा रहे अपनी परंपरा:

लेकिन सबसे बड़ी हैरत की बात ये है कि रज्झड़ समुदाय के इन लोगों को कांटों पर इस तरह लोटने के बावजूद कोई बड़ी तकलीफ नहीं होती। कुछ ही देर में तो वो सामान्य भी हो जाते हैं। और तो और इस आयोजन में हर उम्र के लोग शामिल होते हैं। हालाँकि भोंडाई को लेकर और भी कई किवंदतियां कही-सुनीं जाती हैं, लेकिन उन्हें लेकर कोई भी एकमत नहीं है। अगर हम चिकित्सीय दृष्टि से देखें तो तो ऐसे नंगे बदन कांटों पर लेटना बहुत ही खतरनाक है। इससे गंभीर चोट भी लग सकती है, फंगल और बैक्टिरियल इंफेक्शन भी हो सकते हैं और फिर जान जाने का खतरा तो है ही। 

लेकिन वो कहते हैं न कि भारत एक आस्था प्रधान देश है। यह आस्ता ही है जो कभी कभी एक समाज को भी चलाता है फिर चाहे वो जानलेवा ही क्यों न हो। फिर भोंडाई समाज के लोग आस्था के नाम पर यह दर्दनाक और खौफनाक खेल  कई पीढ़ियों से खेलते आ रहे हैं।