JNU Vice Chancellor Shantishree D Pandit spoke on dress code hijab
JNU की कुलपति शांतिश्री डी पंडित (फाइल फोटो)

JNU की कुलपति शांतिश्री डी पंडित ने कहा है कि भारत में धर्म, भाषा और ‘ड्रेस कोड' में एकरूपता कारगर नहीं है और अगर कोई छात्रा हिजाब पहनना चाहती है, तो यह उसकी पसंद है और उसे इसकी अनुमति मिलनी चाहिए।

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नई दिल्ली: जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (JNU) की कुलपति शांतिश्री डी पंडित (Santishree Dhulipudi Pandit) ने कहा है कि भारत में धर्म, भाषा और ‘ड्रेस कोड’ में एकरूपता कारगर नहीं है और अगर कोई छात्रा हिजाब पहनना चाहती है, तो यह उसकी पसंद है और उसे इसकी अनुमति मिलनी चाहिए। पंडित ने यहां पीटीआई मुख्यालय पर एजेंसी के संपादकों के साथ बातचीत में कहा कि शिक्षण संस्थानों को वैयक्तिक पसंदों का सम्मान करना चाहिए और जो छात्राएं हिजाब पहनना चाहती हैं, उन्हें इसकी अनुमति देनी चाहिए।

शिक्षण संस्थानों में ‘ड्रेस कोड’ पर उनके विचार पूछे जाने पर कुलपति ने कहा कि यह एक व्यक्तिगत पसंद होनी चाहिए। उन्होंने कहा, ‘‘मैं ड्रेस कोड के खिलाफ हूं। मुझे लगता है कि खुलापन होना चाहिए। अगर कोई हिजाब पहनना चाहता है, तो यह उसकी पसंद है और अगर कोई इसे नहीं पहनना चाहता है, तो उसे मजबूर नहीं किया जाना चाहिए।” पंडित ने कहा, ‘‘जेएनयू में लोग शॉर्ट्स पहनते हैं तो कुछ लोग पारंपरिक परिधान भी पहनते हैं। ये उनकी पसंद का मामला है। जब तक वे मुझे ऐसा करने के लिए मजबूर नहीं करते, मुझे कोई समस्या नहीं है।”

गौरतलब है कि कर्नाटक में 2022 में हिजाब विवाद सामने आया था जब उडुपी के एक सरकारी स्नातकोत्तर कॉलेज की छह छात्राओं ने निर्धारित परिधान से हटकर हिजाब पहनकर कक्षा में भाग लिया था और उन्हें कॉलेज से बाहर निकाल दिया गया था। कर्नाटक की तत्कालीन भाजपा नीत सरकार ने शिक्षण संस्थानों के निर्धारित वेशभूषा संबंधी नियमों का पुरजोर समर्थन किया था और हिजाब को धार्मिक प्रतीक करार दिया था, वहीं उस समय विपक्ष में रही कांग्रेस ने मुस्लिम छात्राओं का समर्थन किया था। तटीय कर्नाटक में ऐसे अनेक मामले सामने आए जब हिजाब पहनकर कॉलेज पहुंची मुस्लिम छात्राओं को कक्षाओं में नहीं बैठने दिया गया।

कुलपति पंडित ने कहा, ‘‘खानपान और पहनावा निजी पंसद के मुद्दे हैं। मुझे नहीं लगता कि संस्थानों को इन पर कोई नियम बनाना चाहिए। व्यक्तिगत पसंद का सम्मान होना चाहिए।” उन्होंने कहा, ‘‘मैं धर्म, जाति या भाषा में एकरूपता पर सहमत नहीं हूं। एक भाषा नहीं थोपी जानी चाहिए। अगर कुछ लोग कुछ राज्यों में इसे (आधिकारिक भाषा को) बदलकर हिंदी करना चाहते हैं तो वे कर सकते हैं। लेकिन दक्षिण में यह मुश्किल होगा। पूर्वी भारत में, यहां तक कि महाराष्ट्र में मुझे नहीं लगता कि हिंदी स्वीकार्य होगी।”

कुलपति ने कहा, ‘‘मैं कहूंगी कि हिंदी हो सकती है लेकिन एक ही भाषा नहीं थोपी जानी चाहिए। (जवाहरलाल) नेहरू और इंदिरा गांधी दोनों त्रि-भाषा फॉर्मूले की बात करते थे तो वे मूर्ख तो नहीं थे, क्योंकि भारत में, किसी भी रूप में एकरूपता काम नहीं करती है।” वह हिंदी को राष्ट्र भाषा बनाने और शिक्षण में माध्यम की मुख्य भाषा बनाने की मांगों के संबंध में पूछे गए सवाल का जवाब दे रही थीं। उन्होंने कहा, ‘‘भाषा संवेदनशील मुद्दा है। सभी को इसे लेकर सावधानी बरतनी चाहिए।” पंडित ने कहा, ‘‘मेरा मानना है कि सभी को बहुभाषी होना चाहिए क्योंकि भारत में हम सांस्कृतिक विविधता का उत्सव मनाते हैं। सभी भाषाएं अच्छी हैं। मैं किसी भाषा के खिलाफ नहीं हूं, लेकिन मेरे लिए मैं सबसे अधिक सहज अंग्रेजी में हूं।”

शिक्षा प्रणाली में भारतीय इतिहास की कुछ सभ्यताओं का अपेक्षित प्रतिनिधित्व नहीं होने और पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव होने की ओर इशारा करते हुए पंडित ने कहा, ‘‘हर भारतीय चीज खराब नहीं है। हमें संतुलन का भाव रखना होगा। कुछ पश्चिम का लीजिए और कुछ भारत का।” उन्होंने कहा, ‘‘भारत के इतिहास में 200 साल से कम शासन करने वाले मुगलों का वर्णन 200 से अधिक पन्नों में मिलता है। मैं उनके खिलाफ नहीं हूं, उन्हें उनका स्थान दीजिए लेकिन हमारे इतिहास में चोल थे जिन्होंने दुनियाभर में सबसे अधिक समय तक शासन किया था, लेकिन उनका वर्णन आधे पन्ने से भी कम में मिलता है।”

(एजेंसी)