
यदि सीमावर्ती गांवों को महाराष्ट्र में बनाए रखना है तो उनकी गई बीती हालत को सुधार कर वहां विकास की रोशनी पहुंचानी होगी. यह कदम तत्परता से उठाना राज्य सरकार की जिम्मेदारी है. इन गांवों की आधारभूत जरूरतें पूरी न करते हुए सिर्फ भावनात्मक आधार पर उन्हें अपने साथ जोड़ कर नहीं रखा जा सकता. यह देखना भी जरूरी है कि सुविधाओं से वंचित व उपेक्षा झेल रहे महाराष्ट्र के सीमांत गांव के लोग जब यह पाते हैं कि पड़ोस के अन्य राज्य के गांवों में बुनियादी सुुविधाएं उपलब्ध हैं तो वे पड़ोसी प्रदेश में जाने को बेताब हो जाते हैं.
महाराष्ट्र की सीमा कर्नाटक के अलावा तेलंगाना, आंध्रप्रदेश, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, गुजरात जैसे राज्यों से जुड़ी है. ऐसे भी कितने ही गांव है जहां के लोग महाराष्ट्र और पड़ोसी राज्य दोनों के नागरिक हैं. तेलंगाना से लगे गड़चिरोली जिले के 12 गांवों की ऐसी ही स्थिति चली आ रही है. दोनों राज्यों की मतदाता सूची में उनके नाम शामिल हैं. महाराष्ट्र विधानमंडल में सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित किया गया कि कर्नाटक के 865 मराठी भाषी गांवों और बेलगांव सहित 5 शहरों को लेकर रहेंगे. मराठी भाषियों की एक-एक इंच जमीन वापस ली जाएगी. ऐसा करने के लिए केंद्र सरकार से निवेदन किया जाएगा और सुप्रीम कोर्ट में कानूनी पहलू रखने के लिए विशेषज्ञ नियुक्त किए जाएंगे.
मराठी अस्मिता पर जोर देते हुए यह प्रस्ताव पारित किया गया और कहा गया कि पूरे महाराष्ट्र की भावना है कि सीमा के मराठी भाषियों के हितों का ध्यान रखा जाए तथा इस विषय में राजनीति नहीं होनी चाहिए. यह भावना तो अपनी जगह ठीक है लेकिन यह बात ध्यान में रखनी होगी कि खोखले वादों और मीठी-मीठी बातों से सीमा से लगे हुए गरीब और आदिवासी बहुल गांवों का पेट नहीं भरता. वहां का दौरा करने की तथा जरूरतों को प्रत्यक्ष रूप से समझने की राजनेताओं को फुरसत नहीं है.
इन गांवों में सड़क, बिजली, पेयजल, स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा, आजीविका के साधनों की क्या स्थिति है, इस पर भी गौर करना जरूरी है. जब विकास गिने चुने शहरों तक केंद्रित रहेगा और कोई इन सीमावर्ती गांवों की ओर झांककर भी नहीं देखेगा तो वहां के निवासी ‘प्रगतिशील’ महाराष्ट्र में रहने का अभिमान कैसे कर पाएंगे? इन गांवों के लोग मूलभूत नागरी सुविधाओं के हकदार हैं यदि महाराष्ट्र में 62 वर्ष से रहते हुए भी वहां पिछड़ापन कायम है तो इनके लिए कौन जिम्मेदार है? विकास संबंधित रखकर सिर्फ भाषायी आधार पर उन्हें जोड पाना कितना संभव होगा? ये सीमांत गांव विकास योजनाओं के केंद्र में कब आएंगे तथा कब उन्हें प्राथमिकता दी जाएगी, यह भी एक ज्वलंत समस्या है.
यदि महाराष्ट्र में संतुलित विकास होता तो गड़चिरोली, मेलघाट और पालघर इतने उपेक्षित नहीं रहते. मानव विकास सूचकांक पर ध्यान देते हुए वहां का जीवस्तर सुधारना होगा. महाराष्ट्र में पुराने जिलों को विभाजित कर गोंदिया, गड़चिरोली, वाशिम जैसे नए जिले बनाए गए लेकिन मध्यप्रदेश की सीमा से लगा अमरावती जिला बड़े आकार के बावजूद वैसा ही है. वहां अचलपुर को जिला बनाने के बारे में सोचा ही नहीं गया. राज्य में जहां भी जाएं पड़ोसी राज्य में लगे सीमांत जिलों के गांवों में पिछड़ापन नजर आएगा. रोजगार का अवसर नहीं होने से वहां के युवा शहरों को या पड़ोसी राज्य में पलायन करते हैं. जरूरत इस बात की है कि संतुलित विकास का सीमांत गांवों की हालत यथाशीघ्र सुधारी जाए ताकि वहां के लोग पड़ोसी प्रदेश में जाने को बेताब न हों.