Election commissioners should be unanimously elected, opposition is opposing the bill

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विपक्ष उस बिल का विरोध कर रहा है, जिसमें चुनाव आयुक्त चुनने की तीन सदस्यीय कमेटी में प्रधान न्यायाधीश की जगह एक कैबिनेट मंत्री होंगे. चुनाव आयोग का काम चुनाव कराना है. ऐसे ही, सरकार का काम अपने हिसाब से चुनाव आयुक्त चुनना नहीं है. पर यह सवाल नए विधेयक के साथ खड़ा हो गया है, जिसमें सरकार ने चुनाव आयुक्त के चयन का नया आधार तय किया है. नया विधेयक अगर कानून का रूप ले लेता है, तो चुनाव आयुक्तों का चुनाव प्रधानमंत्री, नेता प्रतिपक्ष या लोकसभा में सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी के नेता और प्रधानमंत्री की तरफ से मनोनीत उनके ही मंत्रिमंडल के कोई एक वरिष्ठ मंत्री करेंगे. साफ है कि दो का झुकाव एक तरफ होने की संभावना या आशंका बनी रहेगी, लिहाजा विपक्ष इसका विरोध कर रहा है.

पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी के मुताबिक, बिल में यह प्रावधान होना चाहिए कि कमेटी सर्वसम्मति से एक नाम पर एकमत हो. वह कहते हैं कि पूरी दुनिया में लोगों का चुनाव आयोग की विश्वसनीयता से यकीन उठता जा रहा है. अमेरिका में पिछले राष्ट्रपति चुनाव के दौरान 40 फीसदी वोटरों ने चुनाव प्रक्रिया पर शक जताया था.

पैसेवाली पार्टियों के लिये लंबा चुनाव फायदेमंद

चुनाव आयोग चुनावों को कैसे प्रभावित कर सकता है? एक, सत्ता की सुविधानुसार चुनाव की तारीखों व चरणों का एलान कर. लंबा चुनाव पैसेवाली पार्टियों के लिए फायदेमंद साबित होता है, क्योंकि छोटे दल तो दूसरे चरण के बाद ही हांफने लगते हैं. दो, मतदाता सूची में नाम जोड़ने या घटाने को लेकर आयोग पर सवाल उठते रहे हैं. इससे पहले प्रधानमंत्री मंत्रिमंडल के साथ बैठकर चुनाव चुनाव आयुक्त का नाम तय कर लेते थे. ऐसे में चुनाव आयुक्त कितना ही निष्पक्ष क्यों न हो, उस पर ठप्पा लग जाता था. इस व्यवस्था की आलोचना होती रही, पर बदलाव नहीं हुआ. इस बीच सीबीआई निदेशक, मुख्य सूचना आयुक्त या मुख्य सतर्कता आयुक्त सभी की नियुक्ति एक समिति करती रही, जिसमें प्रधानमंत्री और नेता प्रतिपक्ष को स्थान दिया गया. पर चुनाव आयुक्त के मामले में सरकार छूट लेती रही, जिस पर विवाद भी होते रहे और अदालत में वाद भी.

सीजेआई की भूमिका समाप्त

ऐसा ही एक वाद सुप्रीम कोर्ट पहुंचा, जिसमें पंजाब कैडर के एक आईएएस अधिकारी को रिटायरमेंट के छह घंटे के भीतर चुनाव आयुक्त बना दिया गया. तब सुप्रीम कोर्ट ने व्यवस्था दी कि जब तक सरकार नियुक्ति प्रक्रिया पर नया बिल नहीं लाती, तब तक चुनाव आयुक्त की नियुक्ति प्रधानमंत्री, नेता प्रतिपक्ष और सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश करेंगे. पर नए बिल में प्रमुख न्यायाधीश की भूमिका समाप्त कर दी गई है. तर्क दिया जा रहा है कि प्रमुख न्यायाधीश कानून ज्ञाता हो सकते हैं, पर जरूरी नहीं कि उन्हें सचिव स्तर के सरकारी अधिकारियों के कामकाज की भी जानकारी हो. एक तर्क यह भी दिया गया कि चूंकि चुनाव आयुक्त का मसला कोर्ट में गया है, लिहाजा प्रमुख न्यायाधीश का नियुक्ति प्रक्रिया का हिस्सा होना उचित नहीं. पर सीबीआई निदेशक का चयन भी प्रधानमंत्री और नेता प्रतिपक्ष के साथ सीजेआई करते हैं और सीबीआई के मामलों की सुनवाई सुप्रीम कोर्ट भी करता है, तो चुनाव आयुक्त की नियुक्ति में सीजेआई पर नैतिक हदबंदी क्यों मानी जाए?

विधेयक में व्यवस्था की गई है कि अब सचिव स्तर के नीचे के अधिकारियों के नाम पर विचार नहीं होगा. कैबिनेट सचिव की अध्यक्षता में सिलेक्ट कमेटी बनेगी, जो पांच नामों की सिलेक्शन कमेटी बनाएगी और उन पर कमेटी विचार करेगी. पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त इसका स्वागत करते हुए कह रहे हैं कि पहले किसी को भी चुनाव आयुक्त बना दिया जाता था, पर अब ऐसा नहीं हो सकेगा. लेकिन बिल कहता है कि कमेटी चाहे, तो भेजे गए नामों के अलावा किसी अन्य को भी चुनाव आयुक्त बना सकती है.