वर्तमान वैश्विक परिद्दश्य में जब ज्यादातर क्षेत्रीय सहयोग संगठन औपचारिक घोषणापत्र जारी करने तक सीमित रहकर अपनी प्रासंगिकता खोते नजर आ रहे हैं, ब्रिक्स का मजबूत होना विकास की ओर अग्रसर देशों के लिए उम्मीद जगाता है. दुनिया के पांच सबसे बड़े विकासशील देशों (ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका) के समूह ब्रिक्स की ताकत का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि इन देशों में दुनिया की 41 फीसदी आबादी रहती है, वैश्विक जीडीपी का 24 फीसदी हिस्सा इन देशों का है और वैश्विक व्यापार में इन देशों की 16 फीसदी हिस्सेदारी है. इसके अलावा, 40 से ज्यादा देशों ने जिस तरह ब्रिक्स में शामिल होने की इच्छा जताई है और 22 देशों ने सदस्यता के लिए औपचारिक अनुरोध भी किया है, वह संगठन की बढ़ती लोकप्रियता का ही प्रमाण है.
बीते बुधवार को दक्षिण अफ्रीका के जोहान्सबर्ग में संपन्न हुआ ब्रिक्स सम्मेलन इसलिए भी खास माना जाना चाहिए कि न केवल कोविड-19 के प्रकोप के बाद पहली बार सभी ब्रिक्स नेता आमने-सामने एकजुट हुए, बल्कि वैश्विक शक्ति संतुलन में आ रहे बदलावों के संकेत भी इसमें देखने को मिले. ये संकेत प्रधानमंत्री मोदी के ब्रिक्स के विस्तार पर आम सहमति के साथ आगे बढ़ने के प्रस्ताव का स्वागत करने और अंतरिक्ष, शिक्षा, तकनीकी, सहयोग, शेर-चीता इत्यादि प्रजातियों के संरक्षण और परंपरागत चिकित्सा संबंधी सुझावों को लेकर सदस्य देशों की प्रतिक्रियाओं से भी परिलक्षित होते हैं. दरअसल, ब्रिक्स के विस्तार पर भारत के समर्थन के पीछे की सोच स्पष्ट है.
भारत पहले भी विकासशील व अल्पविकसित देशों (ग्लोबल साउथ) की जरूरतों के प्रति ज्यादा ध्यान देने के लिए बहुध्रुवीय व्यवस्थाओं में सुधार की बात करता आया है. लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए कि रूस विकसित देशों के समूह जी-7 द्वारा संचालित वैश्विक राजनीतिक- आर्थिक मॉडल का विकल्प ब्रिक्स में ढूंढ रहा है.
फिर, पश्चिमी देशों ने जिस तरह से रूस पर आर्थिक प्रतिबंध लगाए हैं, उसके बाद रूस ने ज्यादा तेजी से यह मांग रखनी शुरू कर दी है. इस संदर्भ में, ब्राजील के राष्ट्रपति लूला डा सिल्वा ने जो कहा, वह निश्चित रूप से स्वागतयोग्य है कि ब्रिक्स जी-7, जी-20 या अमेरिका का प्रतिरोध नहीं करता, बल्कि वह सिर्फ खुद को व्यवस्थित करना चाहता है. ब्रिक्स का विस्तार समय की मांग है, लेकिन ऐसा सही वजहों से हो, यह जरूर सुनिश्चित करना होगा.