Like UP, fake encounter in Hyderabad top

    Loading

    जब अपराधी पकड़े जा सकते हैं तो उनका फर्जी एन्काउंटर क्यों होना चाहिए? अपराध कितना भी जघन्य क्यों न हो, कानून यही कहता है कि पुलिस आरोपी को गिरफ्तार करे और उसके खिलाफ पुख्ता साक्ष्य व सबूतों के आधार पर अदालत में मामला पेश करे. अपराधी की सजा को लेकर फैसला करना अदालत का काम है. पुलिस किसी भी हालत में जज या सजा देनेवाले की भूमिका नहीं निभा सकती. पुलिस को इस तरह का कोई अधिकार नहीं है. वह कानून से बंधी हुई है. पुलिस की हिरासत में भी कोई मौत नहीं होनी चाहिए. यदि ऐसा हुआ तो जिम्मेदारी पुलिसवालों पर ही आती है. देश में हिरासत मौतों (कस्टोडियल डेथ) की काफी बड़ी संख्या है जो कि गहरी चिंता का विषय है.

    पुलिस को ठोक देने की छूट

    उत्तरप्रदेश में योगी सरकार ने खतरनाक अपराधियों को ठोक देने की पुलिस को छूट दी. इसके बाद यूपी में अपराध कम हुए और शातिर अपराधियों ने सरेंडर भी किया. दबंगों और माफिया के मकानों और अतिक्रमण पर बुलडोजर चलाया गया. इससे जनता को दबंगों की दहशत से राहत मिली. इसके पूर्व अखिलेश यादव की सपा सरकार के समय पुलिस यादवों और मुस्लिमों के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज नहीं करती थी. योगी की सरकार आने के बाद स्थिति बदल गई. दबंगों को समझ में आ गया कि वे कानून से बड़े नहीं हैं.

    विकास दुबे का प्रकरण

    कानपुर के बिकरू गांव के दबंग अपराधी विकास दुबे और उसके गिरोह ने अपने यहां कार्रवाई करने आए 8 पुलिस कर्मियों की हत्या की. दोनों ओर से गोलियां चलीं. इसके बाद विकास दुबे ने मध्यप्रदेश पुलिस के सामने सरेंडर किया. उसे यूपी भेजते समय रास्ते में तेज बारिश में वाहन पलट गया. दुबे ने पुलिस पर गोली चलाते हुए भागने की कोशिश की. जवाब में पुलिस ने गोली चलाई तो वह मारा गया. इसे लेकर भी शंका व्यक्त की गई थी कि गाड़ी कानपुर के पास ही क्यों पलटी. जब हथकड़ी बंधी थी तो उसे खोलकर दुबे कैसे भागा? पुलिस ने उसके पैर पर गोली क्यों नहीं मारी? जनता तो अपराधियों का खात्मा पसंद कर रही है लेकिन इसे कानूनी तौर पर सही नहीं कहा जा सकता है. पुलिस की समस्या यह है कि दबंगों के खिलाफ गवाही देने की हिम्मत कोई नहीं करता. अकाट्य सबूत जुटाना भी कठिन हो जाता है. इसलिए अदालत ऐसे तत्वों को बाइज्जत बरी कर देती है.

    दुष्कर्म के बाद जिंदा जलाया

    हैदराबाद में एक डाक्टरी पढ़ रही युवती की स्कूटर रास्ते में खराब हो जाने पर उसके साथ सामूहिक दुष्कर्म किया गया और फिर उसको पेट्रोल डालकर जिंदा जला दिया गया. इस नृशंस कांड की देश में तीव्र प्रतिक्रिया हुई थी. पुलिस के साथ मुठभेड़ में इस मामले के 4 आरोपी मारे गए. ऐसे में मानवाधिकार का मुद्दा उठ खड़ा होता है. सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त जस्टिस शिरपुरकर आयोग ने अपनी जांच में इस पुलिस एन्काउंटर को फर्जी बताया. आयोग ने इसके साथ ही 10 पुलिस कर्मियों पर हत्या का मामला चलाने की सिफारिश की है. आयोग ने कहा कि पुलिस का यह कहना कि आरोपी ने पिस्तौल छीन ली और फरार होने की कोशिश की, विश्वसनीय नहीं है. ये दलीलें सबूत के आधार पर नहीं हैं. मुठभेड़ में मारे गए 4 आरोपियों में से 3 नाबालिग थे. अभियुक्तों पर इस तरह गोलियां चलाई गई ताकि वे मर जाएं. सुप्रीम कोर्ट ने तेलंगाना सरकार की रिपोर्ट सीलबंद करने की मांग ठुकरा दी और मामले को तेलंगाना हाईकोर्ट के पास वापस भेज दिया.