सोशल मीडिया पर भ्रामक सूचनाएं, चुनाव पर तकनीकी हेरफेर का साया

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टेक कंपनियां सोशल मीडिया (Social Media) पर आम चुनावों में भ्रामक सूचनाएं (Misinformation), डीप फेक और दूसरी अनुचित हरकतें रोकने के बड़े प्रयासों के साथ कार्यरत हैं। गृहमंत्री अमित शाह की एक फेक वायरल वीडियो के चलते तेलंगाना के मुख्यमंत्री को दिल्ली पुलिस ने बुलावा भेज दिया है, इसके साथ ही वीडियो के बारे में विस्तृत जांच जारी है।  बॉलीवुड अभिनेता रणवीर सिंह और आमिर खान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की आलोचना करते हुए लोगों से कांग्रेस पार्टी के लिए वोट मांगते सोशल मीडिया पर 5 लाख से ज्यादा बार देखे गए। इन दोनों वायरल वीडियो को एक्स और फेसबुक के अलावा आठ फैक्ट चेकिंग वेबसाइटों और रॉयटर्स डिजिटल वेरिफिकेशन यूनिट ने बता दिया कि ये मैनिपुलेटेड हैं। 

कांग्रेस नेता विजय वसंत के लिए मशहूर राजनेता और उनके मृत पिता यह कहते हुए उनके लिए वोट मांगते सुने गए, ‘भले ही मेरा शरीर आप सबको छोड़कर चला गया, लेकिन मेरी आत्मा आपके आस पास ही है।’ ये महज हफ्तेभर में आए कुछ उदाहरण हैं, जो इस चुनाव में  सोशल मीडिया के दुरुपयोग और चुनाव आयोग की चौकसी में चूक बताते हैं। टेक कंपनियां भरोसा दिला रही हैं कि वे देश के चुनाव में अपनी सकारात्मक भूमिका निभा रही हैं। इन दावों के बावजूद व्हाट्सअप और एक्स पर भ्रामक सूचनाओं की भरमार है। डीपफेक के कारनामे काबू में नहीं हैं। संचार माध्यमों के जरिए प्रचार में हेट स्पीच और धर्म का इस्तेमाल धड़ल्ले से हो रहा है।

फैक्ट चेक किया जा रहा

सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स ने चुनाव के मद्देनजर कई ऐसे ट्वीट ब्लॉक किए जिसमें नेता अपने विपक्षी के निजी जीवन के बारे में अपुष्ट और ओछे दावे कर रहे थे, चुनाव आयोग ने इसे आचार संहिता के विरुद्ध माना। चुनाव आयोग ने सतर्कता दिखाई और एक्स ने सहयोग किया। फेसबुक का मालिकाना हक रखने वाली कंपनी मेटा ने आम चुनावों के मद्देनजर थर्ड-पार्टी निष्पक्ष फैक्ट-चेकर नेटवर्क को विस्तार देने के लिए भारी निवेश करने के साथ ही प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया की फैक्ट-चेकिंग इकाई के साथ एक एग्रीमेंट किया। 

फेसबुक के साथ पहले से ही कई फैक्ट चेकर अपनी सेवा दे रहे हैं। फेसबुक ने जेनरेटिव एआई से निर्मित डीपफेक को पहचानने वाली बड़ी टेक कंपनियों के साथ  समझौता कर रखा है। टेक अकार्डे जो तकनीक क्षेत्र की एडॉब, एमेजॉन, गूगल, आईबीएम, लिंक्डइन, मेटा, माइक्रोसॉफ्ट, ओपेन एआई, एक्स और टिकटॉक जैसी 20 बड़ी कंपनियों का समूह है, इसका दावा है कि वह चुनावी अफवाहों से जंग में अपनी पूरी ताकत झोंके हुए हैं। देश के मतदाताओं को गुमराह करने वाली सामग्री से निपटने के लिए इन्होंने न सिर्फ तकनीक सक्षमता बढ़ाने का भरोसा दिलाया बल्कि इस क्षेत्र में भारी
आर्थिक निवेश की बात भी कही।

यूट्यूब चुनावी विज्ञापनों को लेकर पारदर्शिता रखने के साथ फैक्ट चेक में बहुत कड़ाई बरत रही है। व्हाट्सअप के साथ सरकार का विवाद चल रहा है, उसने भी लोगों के मैसेज समूहों में फॉरवर्ड करने पर सीमाएं रखीं और कुछ नियम बनाए हैं। चुनावी प्रक्रिया को सरल तथा निरापद बनाने के लिए चुनाव आयोग के 27 ऐप्स और पोर्टेल्स काम कर रहे हैं। उसका दावा है कि उसने भी कई टेक कंपनियों से इस बाबत करार किए हैं कि चुनाव प्रक्रिया में भ्रम और दुष्प्रचार शामिल न हो। पर क्या किसी भी चरण में किसी को ऐसा लगा कि टेक कंपनियां और चुनाव आयोग को अपने काम में किंचित भी सफलता मिली है?

कंपनियों के व्यवसायिक हित

कंपनी कोई भी हो उसके व्यावसायिक हित उसके साथ होते हैं। सोशल मीडिया और टेक कंपनियों के साथ भी यही सच है। भाजपा नें पिछले 5 वर्षों में गूगल, यूट्यूब को 100 करोड़ से ज्यादा के विज्ञापन दिये हैं, कांग्रेस और डीएमके जैसी पार्टियां भी उन्हें विज्ञापन देती हैं। ऐसे में इनकी निष्पक्षता संदिग्ध हो जाती है। कमर्शियल एकाउंट से अभद्र कंटेट प्रस्तुत करने पर इनका चेकिंग सिस्टम आंखें मूंद लेता है क्योंकि उससे कमाई होती है। वे अपने नकली नामों से बने वैमनस्य फैलाने वाले हजारों फर्जी एकाउंट के नेटवर्क की शीघ्रता से जांच तक नहीं कर पाते। जेनेरेटिव एआई को रोकने कि लिये बेहद कुशल लोग और महंगे सॉफ्टवेयर तथा उचित शोध सहायता चाहिये उसके लिये ये अधिक निवेश को तैयार नहीं।