अचानक सत्र बुलाने पर विपक्षी पार्टियां सांसत में

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केंद्र सरकार ने अचानक 18 से 22 सितंबर तक संसद का विशेष सत्र बुलाने की घोषणा कर विपक्ष को चौंका दिया जो कि मुंबई में अपने ‘इंडिया’ गठबंधन की बैठक में व्यस्त था. एकाएक सत्र बुलाने से विपक्ष सांसद में पड़ गया है. विशेष सत्र के प्रयोजन को लेकर माना जा रहा है कि इसके दौरान सरकार एक देश-एक चुनाव का विधेयक पेश कर सकती है.

वैसे यह कोई नई चीज नहीं है. 1952 में हुए प्रथम आए चुनाव से लेकर 1967 तक देश में लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ हुआ करते थे लेकिन जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 1968-69 में कुछ गैरकांग्रेसी राज्य सरकारों को बर्खास्त करवा कर वहां की विधानसभाएं समय पूर्व भंग करवा दीं तभी से यह सिलसिला बिगड़ गया. बांग्लादेश युद्ध में विजय से मिली लोकप्रियता को भुनाने के लिए लोकसभा 1970 में विसर्जित कर 1971 में मध्यावधि चुनाव कराए गए.

2014 के लोकसभा चुनाव घोषणापत्र में बीजेपी ने ऐसी प्रक्रिया तैयार करने का वादा किया था जिससे लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराए जा सकें. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी विभिन्न अवसरों पर एक देश-एक चुनाव की आवश्यकता की ओर संकेत कर चुके हैं. पीएम ने 2016 में यह बात कही थी और फिर 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद इस मुद्दे पर विचार करने के लिए सर्वदलीय बैठक बुलाई थी परंतु अनेक विपक्षी पार्टियों ने उससे दूरी बरती. प्रधानमंत्री की दलील है कि हर कुछ महीनों में चुनाव होते रहने से राष्ट्र के संसाधनों पर भार और सुशासन में अवरोध आता है.

खर्च व समय बचेगा

एक साथ लोकसभा और विधानसभा चुनाव कराने से खर्च और समय बचेगा. बार-बार आचार संहिता लागू नहीं करनी पड़ेगी क्योंकि इसकी वजह से प्रशासनिक निर्णय व कामकाज रूक जाता है. एक ही मतदाता सूची दोनों चुनाव के लिए काम आ जाती है. एक ही बार में लोकसभा सदस्य और विधायक का चुनाव हो जाता है बार-बार सुरक्षा बलों की तैनाती नहीं करनी पड़ती. एक साथ चुनाव से समूचे राष्ट्र की मानसिकता के आधार पर स्पष्ट जनादेश आता है. पहले के चुनावों में मतपत्रों की छपाई, कागजी मतदान और वोट गिनती में लगनेवाला समय, ढेर सारी मत पेटियों की सुरक्षा जैसी समस्याएं रहा करती थीं लेकिन ईवीएम आने से सब कुछ आसान हो गया.

इस वर्ष नवंबर-दिसंबर में मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और मिजोरम के विधानसभा चुनाव हैं तथा अप्रैल-मई में लोकसभा चुनाव होने की उम्मीद है. यदि एक राष्ट्र-एक चुनाव के फार्मूले को अपनाया जाता है तो जिन राज्यों की विधानसभा 4 वर्ष पुरानी हो चुकी हैं, उनका भी लोकसभा के साथ चुनाव कराया जा सकता है. जिन राज्यों में एक-दो वर्ष पहले चुनाव हुआ है वह फिर से विधानसभा चुनाव के लिए बिल्कुल राजी नहीं होंगे. एक साथ चुनाव का लक्ष्य पूरा करने के लिए कुछ न कुछ समायोजन करना पड़ेगा. 2004 में भी समय से कुछ माह पूर्व चुनाव कराने का जोखिम एनडीए सरकार ने लिया था.

आसान नहीं है ऐसा करना

एक साथ लोकसभा और विधानसभा चुनाव कराने के मुद्दे पर विचार करने के लिए पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ काोविद के नेतृत्व में एक समिति विचार करेगी. इसके पहले भी विभिन्न पैनल इस पर विचार कर चुके हैं. विशेषज्ञों की राय में ‘एक राष्ट्र एक चुनाव’ के प्रस्ताव के लिए संविधान संसोधन करना होगा तथा इसके लिए संसद के 2 तिहाई सदस्यों का समर्थन मिलना आवश्यक होगा. ऐसा कर पाना सरकार के लिए कठिन जाएगा. सीपीआई महासचिव डी राजा ने इस मुद्दे पर टिप्पणी करते हुए कहा कि बीजेपी एक राष्ट्र, एक संस्कृति, एक धर्म, एक भाषा, एक टैक्स और एक नेता जैसे विचारों से प्रभावित है. कोई नहीं जानता कि संसद के विशेष सत्र का उद्देश्य क्या है?