क्षेत्रीय भाषा में उच्च शिक्षा के असर पर ठोस अध्ययन नहीं

  • उलटी न पड़ जाए क्षेत्रीय भाषाओं में टेक्नोलॉजी पढ़ाने की कोशिश

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भारत की नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) के अंतर्गत उच्च शिक्षा में अब क्षेत्रीय भाषाओं को पढ़ाई का माध्यम बनाने पर जोर होगा. भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी स्वतंत्रता दिवस पर पढ़ाई में इनके इस्तेमाल की बात कही थी. इसी दिशा में काम करते हुए नए शैक्षणिक वर्ष में 14 इंजीनियरिंग कॉलेजों ने 5 भारतीय भाषाओं में टेक्निकल कोर्स की शुरुआत कर दी है.

वर्तमान सरकार इस बहुभाषायी उच्च शिक्षा नीति के जरिए समाज के वंचित तबकों को सशक्त करना चाहती है. आंकड़े बताते हैं कि भारत में आमतौर पर कमजोर तबके से आने वाले स्टूडेंट्स सरकारी स्कूलों में शिक्षा हासिल करते हैं, जिनमें उनके लिए अंग्रेजी का अच्छा ज्ञान हासिल कर पाना मुश्किल होता है. हालांकि प्राथमिक शिक्षा के दौरान क्षेत्रीय भाषा में पढ़ाई के कई फायदे देखे गए हैं लेकिन उच्च शिक्षा के मामले में इसका क्या असर होगा, यह देखना बाकी है, खासकर जब भारत की सार्वजनिक शिक्षा प्रणाली का बड़ा हिस्सा ठीक से काम ही नहीं कर रहा. 

क्या वंचित तबके सशक्त हो पाएंगे?

यह योजना अपने वंचित तबकों को सशक्त करने के मकसद को पूरा कर सकेगी या नहीं, इस पर भी जानकार असमंजस में हैं. यद्यपि वे अंग्रेजी की पढ़ाई के खिलाफ नहीं हैं. उत्तर प्रदेश राजर्षि टंडन मुक्त विश्वविद्यालय प्रयागराज की कुलपति और शैक्षणिक मनोविज्ञान की जानकार सीमा सिंह कहती हैं, पढ़ाई के माध्यम के तौर पर मातृभाषा बनाम अंग्रेजी की लड़ाई से अच्छा है कि मातृभाषा संग अंग्रेजी का नजरिया अपनाया जाना चाहिए. बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी में शिक्षा विभाग की प्रोफेसर अंजली बाजपेयी के मुताबिक, कई रिसर्च बताते हैं कि छोटे बच्चे (2 से 8 साल के) नई भाषाओं को ज्यादा तेजी से सीखते हैं. इसलिए यह एक सही उम्र है, जब बच्चों को कम्युनिकेशन के लिए एक विदेशी भाषा सिखाई जा सकती है. भारत और अन्य एशियाई देशों में किए गए अध्ययनों से पता चलता है कि स्कूल स्तर पर क्षेत्रीय भाषाओं में पढ़ने वाले बच्चों ने अपने अंग्रेजी शिक्षा पाने वाले साथियों से ज्यादा अच्छा प्रदर्शन किया है. यूं तो ज्यादातर विषयों में बच्चों का स्तर एक जैसा था लेकिन क्षेत्रीय भाषाओं में पढ़ाई करने वाले बच्चे विज्ञान और गणित जैसे विषयों में ज्यादा अच्छे रहे. शैक्षणिक मनोविज्ञान भी मानता है कि क्षेत्रीय भाषाओं में पढ़ाई के कई फायदे होते हैं. सरकार भी इसमें साथ दे रही है.

किताबों व रिसर्च पेपर्स की कमी

ऐसे में माना जा सकता है कि क्षेत्रीय भाषा में इंजीनियरिंग की पढ़ाई से उच्च शिक्षा में गरीबी और अमीरी के अंतर को खत्म किया जा सकता है. लेकिन वहीं दूसरी ओर इस रास्ते पर चलने के कई डर भी हैं. यह डर पहले के ऐसे प्रयोग से निकले हैं जो याद दिलाते हैं कि इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (आईआईटी) ऐसे प्रयास करने के बावजूद नाकाम रहा है. ऐसी कोशिश में सबसे बड़ी चुनौती अध्ययन सामग्री जैसे किताबों और रिसर्च पेपर वगैरह की कमी होती है. इस कमी को पूरा करने के लिए ऑल इंडिया काउंसिल ऑफ टेक्निकल एजुकेशन (एआईसीटीई) ने आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का उपयोग कर किताबों, अकादमिक पत्रिकाओं और वीडियो का हिंदी अनुवाद करने वाला उपकरण पेश किया है.

अंतर घटेगा या बढ़ेगा

जानकार मानते हैं कि इस पूरे मामले में ग्लोबलाइजेशन को भी ध्यान में रखना चाहिए. नई शिक्षा नीति, शिक्षा के अंतरराष्ट्रीयकरण को बढ़ावा देना चाहती है लेकिन क्षेत्रीय भाषाओं में पढ़ाई करने से स्टूडेंट्स को नॉलेज ट्रांसफर का लाभ मिलने में बाधा आ सकती है. ऐसा भी हो सकता है कि क्षेत्रीय भाषा में उच्च शिक्षा पाने वाले स्टूडेंट्स अंग्रेजी में पारंगत न होने के चलते अंतरराष्ट्रीय नौकरियां न हासिल कर सकें, जिससे ब्रेन ड्रेन में कमी लाने में मदद मिले. लेकिन यह नीति समृद्ध और गरीब लोगों के बीच के अंतर को पाटने के अपने उद्देश्य में भी सफल हो पाएगी, इसमें संशय है. ऐसे में ग्लोबलाइजेशन के दौर में एक क्षेत्रीय भाषा में शिक्षा की देने के मामले पर काफी सोच-विचार की जरूरत होगी.