चुनावों के लिए पब्लिक फंडिंग बड़ी चुनौती

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डॉ. अनिता राठौर 

पारदर्शिता से समझौता नहीं किया जा सकता, इसलिए सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने इलेक्टोरल बांड्स (Electoral Bonds) को सर्वसम्मति से असंवैधानिक घोषित करके वास्तव में चुनावी (Elections) फंडिंग में पारदर्शिता के सिद्धांत को ही बरकरार रखा है. लोकतंत्र में मतदाता सबसे महत्वपूर्ण स्टेक होल्डर्स होते हैं. स्वतंत्र व निष्पक्ष चुनाव के लिए जरूरी है कि वोटर को मालूम हो कि पार्टी या प्रत्याशी के पास पैसा कहां से आ रहा है और उसे किस तरह खर्च किया जा रहा है? यह प्रश्न प्रासंगिक है कि भारत में चुनावी फंडिंग का ऐसा कौन-सा मॉडल अपनाया जाए जो पारदशीं हो, काले धन को नियंत्रित करता हो और मतदाताओं के अधिकारों को भी सुरक्षित रखने में सक्षम हो? राजनीतिक पार्टियां अपने सदस्यों, नागरिकों, यूनियनों, निजी दानकर्ताओं, ट्रस्ट, कंपनियों आदि से चुनावी फंड्स एकत्र करती हैं. 

कंपनियों से मिलने वाला फंड सबसे विवादित है, यही कारण था कि दशकों पहले भारत ने कुछ समय के लिए कॉर्पोरेट दान पर प्रतिबंध लगा दिया था. चिंता यह थी कि कंपनियां राजनीतिक दलों के खजाने व राजनीतिज्ञों की जेब भर देती हैं और अपने हक में नीतियां बनवा लेती हैं, फिर दिए गए दान से कई गुना अधिक जनता से वसूल करती हैं. फलस्वरूप सारा बोझ मतदाता या जनता पर ही पड़ जाता है. विधि आयोग ने अपनी 255वीं रिपोर्ट में कहा था कि चुनावी फंडिंग में अपारदर्शिता, बड़े दानकर्ताओं द्वारा सरकार को ‘कैप्चर’ करने जैसा है. चुनावी दान भ्रष्टाचार का बड़ा स्रोत है. इस भ्रष्टाचार पर विराम इसी तरह से लग सकता है कि एक राष्ट्रीय चुनावी कोष का गठन किया जाए, जिसमें सभी दान कर सकते हैं. 

इस फंड को सभी राजनीतिक दलों में उन्हें मिलने वाले बोटों के अनुपात में वितरित कर देना चाहिए, इससे दानकर्ताओं की पहचान भी सुरक्षित रहेगी और राजनीतिक चंदे में काले धन पर भी विराम लगेगा. भारत में चुनावों की सार्वजनिक फंडिंग बहुत बड़ी चुनौती है. समस्या हमारे राजनीतिक दलों और राजनीतिक व्यवस्था में है. चूंकि अधिकतर दलों में अंतर दलीय लोकतंत्र है ही नहीं या दिखावे का है, इसलिए राज्य के फंड्स पार्टी नेतृत्व के नियंत्रण में रहेंगे, बजाय इसके कि प्रत्याशी के स्तर तक पहुंचे. अपने मत को प्रभावी बनाने के लिए मतदाता उस पार्टी के पक्ष में मत प्रयोग कर बैठते हैं जिसको वह जीता हुआ अनुमानित कर लेते हैं, भले ही उनका वास्तविक समर्थन किसी छोटी क्षेत्रीय पार्टी के लिए हो. फिर सबसे ज्यादा नुकसान निर्दलीय उम्मीदवारों का होता है. उनके पास इतना वोट नहीं होता कि स्टेट फंड्स हासिल कर सकें.

अमेरिका में क्या होता है

अमेरिका में फेडरल इनकम टैक्स फॉर्म के जरिये करदाताओं से मालूम किया जाता है कि क्या वह अपने कर में से 3 डॉलर राष्ट्रपति चुनाव अभियान फंड में देना चाहेंगे? अगर करदाता ‘हां’ पर टिक कर देता है तो 3 डॉलर फंड में चले जाते हैं. यह पब्लिक फंडिंग प्रोग्राम का एकमात्र स्रोत है, लेकिन बामुश्किल 4 प्रतिशत करदाता ही ‘हां’ पर टिक करते हैं. प्रत्याशियों की भी इस फंड में कोई खास दिलचस्पी नहीं होती क्योंकि उन्हें अन्य स्रोतों से बहुत मोटी रकम मिलती है. प्रत्याशियों के पास फंड्स के अनेक स्रोत हैं जैसे पोलिटिकल एक्शन कमेटी (पीएसी), सुपर-पीएसी, समाज कल्याण गुट, राष्ट्रीय, राज्य व स्थानीय पार्टी कमेटियां, लॉबिस्टस, व्यक्तिगत दान आदि.

जर्मनी में स्टेट फंड

जर्मनी में जो स्टेट फंडिंग का मॉडल अपनाया गया है, उसे फिलहाल सबसे अच्छा व उचित समझा जा रहा है. इस मॉडल में पार्टी की आय का केवल 50 प्रतिशत तक ‘मैचिंग ग्रांट’ राज्य से आता है. पार्टी का अंतिम चुनाव में वोट शेयर कितना रहा, उसके हिसाब से स्टेट फंड दिया जाता है. वोट शेयर बढ़ने के साथ दर भी बढ़ा दी जाती है, लेकिन इसकी एक ऊपरी सीमा है, जिससे आगे नहीं बढ़ा जा सकता. प्राइवेट व कॉपरिट दान पर कोई सीमा नहीं है, लेकिन पब्लिक फंड प्राइवेट फंड से अधिक नहीं हो सकता, जिसे पार्टी खुद हासिल करती है. हाई वैल्यू फंड को तुरंत रिपोर्ट करना होता है. डॉ. अनिता राठौर