महाराष्ट्र में प्रशासनिक व्यवस्था में सुधार और पिछड़े क्षेत्रों की प्रगति के लिहाज से नए जिलों का निर्माण अत्यंत आवश्यक है. अनेक वर्षों से की जा रही इस तर्कसंगत मांग की लगातार उपेक्षा की जाती रही है. राज्य के अनेक जिले काफी बड़े आकार के हैं जहां के ग्रामीणों को जिला मुख्यालय आने के लिए 100 किलोमीटर से भी ज्यादा का फासला तय करना पड़ता है. इसमें धन और समय का अपव्यय होता है. बड़े जिलों में कितने ही इलाके विकास की रोशनी से वंचित रह जाते हैं. यह सिलसिला दशकों तक चलता रहता है. जिला मुख्यालय को ठीक रखकर सुदूर क्षेत्रों की ओर ध्यान देना जरा भी जरूरी नहीं समझा जाता. यह कटु सत्य है कि बड़े आकार वाले जिलों के सुदूर इलाके शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, उद्योग, कृषि, व्यापार जैसे क्षेत्रों में बुरी तरह पिछड़े हुए हैं. नए जिले बनाने की आवश्यकता को तनिक भी गंभीरता से नहीं लिया जाता. जब देश में कई नए राज्य बन गए हैं तो राज्यों में नए जिलों का निर्माण भी होना चाहिए. संतुलित विकास और प्रशासनिक व्यवस्था के लिए यह अपरिहार्य है. आजादी के 75 वर्षों बाद भी आदिवासी और दुर्गम इलाके इसलिए विकसित नहीं हो पाए क्योंकि वे जिला मुख्यालय से दूर हैं. उनकी दुर्दशा पर किसी की निगाह नहीं जाती. चुनावी मौसम में वोट लेने के लिए नेता वहां आकर शक्ल दिखा जाते हैं लेकिन बाद में कोई झांककर भी नहीं देखता. ऐसे इलाकों में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र बंद पड़े रहते हैं. कुपोषण से बालमृत्यु होती रहती है. विकास योजनाएं सिर्फ कागजों तक सीमित रहती हैं. साधनों का अभाव बताते हुए उनकी निरंतर उपेक्षा की जाती है.
राजस्थान में 50 लेकिन महाराष्ट्र में सिर्फ 36 जिले
जब राजस्थान और उत्तरप्रदेश आदि राज्यों में नए जिले बनाए जा सकते हैं तो महाराष्ट्र में क्यों नहीं? राजस्थान में जिलों की तादाद बढ़ाकर 50 कर दी गई लेकिन महाराष्ट्र में अभी तक 36 जिले ही हैं. ऐसी यथास्थिति आखिर कब तक चलेगी? मांग है कि राज्य के 25 बड़े जिलों को विभाजित कर 67 जिले बना दिए जाएं. यह मुद्दा पिछले लगभग 1 दशक से विचाराधीन है लेकिन कोई फैसला नहीं लिया गया. जुलाई 2014 में तत्कालीन मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस की सरकार में अपर मुख्य सचिव राजस्व की अध्यक्षता में 6 सदस्यीय समिति गठित की गई थी जो नवंबर 2016 में अपनी रिपोर्ट सरकार को पेश कर चुकी है. इसके बावजूद सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी है.
आर्थिक भार की दलील
यह दलील दी जा रही है कि नए जिले बनाने में राज्य के खजाने पर कई हजार करोड़ रुपए का वित्तीय बोझ आएगा. ऐसे में 56 कार्यालय बनाने होंगे. हर कार्यालय में 50 पद रहने से सरकार पर आर्थिक बोझ आएगा. नए जिलों का निर्माण न करते हुए प्रशासनिक कार्यालय बना देना समस्या का इलाज नहीं है. गहरे जख्म का इलाज मामूली मरहम-पट्टी से नहीं होता. सरकार का कहना है कि जनता की सुविधा के लिए बीड जिले में अंबेजोगाई, नाशिक में मालेगांव, पालघर में ज्वहार और गड़चिरोली में नए प्रशासनिक कार्यालय बनाए गए हैं. ढीलापन यहीं नजर आता है कि ठाणे जिले से पालघर को विभाजित किया गया लेकिन पालघर जिले में अब तक पूर्ण कार्यालय शुरू नहीं किया गया. आज की हालत में जब जनसंख्या बढ़ गई है और लोग पिछड़ेपन से मुक्ति पाना चाहते हैं तो नए जिले बनाकर प्रगति की जानी चाहिए. राजस्थान ऐसा कर सकता है लेकिन महाराष्ट्र में वितीय बोझ के बहाने नए जिले नहीं बनाना तर्कसंगत नहीं लगता. इसी वजह से कोंकण, खानदेश, मराठवाड़ा और विदर्भ बुरी तरह पिछड़ रहे हैं.