चुनाव में मोदी ने कमर कसी, क्या राहुल गांधी पलायनवादी हैं?

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पलायनवादी मानसिकता की इससे बड़ी मिसाल क्या होगी! 5 राज्यों में विधानसभा चुनाव (Assembly Election 2023) हो रहे हैं और ऐसे समय देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस के वरिष्ठ नेता राहुल गांधी 3 दिनों की केदारनाथ धार्मिक यात्रा पर हैं. चुनावी कर्मक्षेत्र में सक्रिय रहकर सभाओं को संबोधित करने, रोड शो निकालने, कार्यकर्ताओं की हौसला अफजाई करने की बजाय राहुल ऐन मौके पर रणछोड़दास बन गए. लगता है उनमें आत्मविश्वास की कमी है और चुनाव के पहले ही उन्होंने हार मान ली है.

क्या राहुल ने यह कहावत नहीं सुनी- मन के हारे हार है, मन के जीते जीत! चुनावी रणक्षेत्र से जब उनके जैसा नेता पीठ दिखाने लगे तो कार्यकर्ताओं का हतोत्साहित होना स्वाभाविक है. जब नेतृत्व ऐसा ढीला होगा तो कांग्रेस चुनाव जीतने की उम्मीद कैसे कर सकती है? दूसरी ओर यह भी संदेह होता है कि क्या राहुल गांधी राजनीति के प्रति निरपेक्ष या उदासीन हैं? क्या उनकी वास्तविक रूचि न रहते हुए भी सोनिया गांधी ने उन्हें जबरन राजनीति में जाने के लिए बाध्य किया? एक अवसर पर स्वयं राहुल ने कहा था कि राजनीति जहर है. एक बार कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद उन्होंने वह पद छोड़ दिया था.

क्या वे मन मारकर राजनीति में हैं? इस तरह के रवैये को अन्यमनस्कता कहा जाता है. प्रियंका गांधी मध्यप्रदेश में प्रचार करती नजर आई लेकिन राहुल गांधी के कदम ऐसे मौके पर उत्तराखंड की ओर बढ़ गए. उत्तराखंड कांग्रेस ने एक्स पर लिखा, ‘राहुल उत्तराखंड की धार्मिक यात्रा पर हैं. इस दौरान कोई राजनीतिक आयोजन नहीं होगा.

पूजा-अर्चना के बाद वे केदारनाथ के निर्माण कार्यों का जायजा लेंगे.’ तीर्थस्थान तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी करते हैं लेकिन धर्म और कर्म का संतुलन संभालना उन्हें बखूबी आता है. अपनी अस्तिकता के बावजद मोदी कर्म क्षेत्र से जरा भी पीछे नहीं हटते बल्कि संपूर्ण ऊर्जा से सक्रिय बने रहते हैं. मोदी प्रधानमंत्री रहने के बावजूद केवल केंद्र सरकार तक सीमित नहीं हैं

. वे राज्यों के चुनावों में कमर कसके जोर लगाते हें. बीजेपी की राज्य इकाई को मोदी की सक्रियता से नया जोश आ जाता है. राज्य में बीजेपी की सरकार हो या विपक्षी पार्टी की सत्ता, मोदी के उत्साह में कोई फर्क नहीं आता. वे चुनावी राज्य का अनेक बार दौरा करते हैं और कई जनसभाओं को संबोधित करते हैं. बीजेपी को जिताने के लिए वे एड़ी-चोटी का जोर लगा देते हैं. मोदी के दौरे से राज्य के पार्टी नेताओं और कार्यकर्ताओं में ऊर्जा और उत्साह का संचार हो जाता है.

वे सफलता या विफलता को लेकर किसी उधेड़बुन में नहीं रहते बल्कि प्रयासों में कोई कसर बाकी नहीं रखते. राजनीति के एप्रोच का फर्क यहीं नजर आता है. राहुल मोर्चा छोड़ देते हैं जबकि मोदी अग्रणी बने रहते हैं. उनके साथ एक निरंतरता, उद्देश्य और विजन है.