editorial The army is the government in Pakistan, the politician is a puppet in his hand

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    पाकिस्तान के निर्माण के बाद से वहां अधिकांश वर्षों तक फौजी जनरलों की हुकूमत रही. यदि कोई निर्वाचित सरकार बनी भी तो सेना के दबाव में काम करती रही और अल्पजीवी साबित हुई. पाकिस्तान की जमीन पर लोकतंत्र की जड़ें कभी जम ही नहीं पाईं. यहां के राजनीतिज्ञ सेना के हाथों की कठपुतली बने रहे. इस बात को नवाज शरीफ, बेनजीर भुट्टो, यूसुफ रजा गिलानी से लेकर जफरुल्लाह जमाली तक सारे पूर्व प्रधानमंत्रियों ने माना है कि पाकिस्तान में सेना की हर क्षेत्र में मजबूत पकड़ है. वहां कोई भी प्रधानमंत्री अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाया.

    इमरान खान पर जनरल कमर बाजवा भारी पड़े और इमरान को पीएम पद से हटना पड़ा. अब नए प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ की भी सेना से अनबन चल रही है. पाकिस्तान के पहले प्रधानमंत्री लियाकत अली खान की हत्या के बाद से सेना का वर्चस्व बढ़ता चला गया. जनरल अयूब खान, जनरल याह्या खान, जनरल जिया उल हक और जनरल परवेज मुशर्रफ की हुकूमत में लोकतंत्र हमेशा फौजी बूटों तले रौंदा गया. जब कभी चुनाव हुए तो निर्वाचित सरकार पूरी तरह सेना के दबाव में रही. जनरल जिया उल हक ने तो जुल्फिकार अली भुट्टो को फांसी पर लटकवा दिया था.

    जनरल मुशर्रफ ने पहले नवाज शरीफ को पीएम पद से बर्खास्त कर जेल भेजा और फिर सऊदी अरब निष्कासित कर दिया. बेनजीर भुट्टो की चुनाव प्रचार के दौरान हत्या हो गई थी. सेना के बड़े अफसरों के पास बड़ी-बड़ी कंपनियों के अधिकांश शेयर हैं. उनकी अनेक कोठियां व फार्महाउस हैं. सरकार तो नाममात्र की रहती है, असली पॉवर सेना और खुफिया एजेंसी आईएसआई के हाथों में बना रहता है.

    पाकिस्तान में कई राजनीतिक पार्टियां हैं लेकिन जो भी पार्टी सरकार बनाती है, उसकी औकात सेना की कठपुतली जैसी होती है. पाकिस्तान के बजट में बड़ा हिस्सा सेना के लिए रहता आया है. सेना की मर्जी या संकेतों से अलग हटकर चलने की कोशिश करने वाले पीएम को हमेशा अपना पद खोना पड़ता है.