श्रीलंका में दूसरी बार इमरजेंसी, चीन के कर्ज जाल में फंसने से भारी दुर्दशा

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    अपनी अदूरदर्शी नीतियों की वजह से श्रीलंका में 5 माह में दूसरी बार इमरजेंसी की घोषणा हुई है जिसकी अमेरिका और यूरोपीय यूनियन ने कड़ी आलोचना की. पर्यटन और अंतरराष्ट्रीय व्यापार के माध्यम से विकास का अवसर उपलब्ध होते हुए भी इस देश पर भुखमरी की नौबत आ गई है. 1948 में ब्रिटिश गुलामी से आजाद हुए श्रीलंका में 27 वर्षों तक गृहयुद्ध चलता रहा. 

    उससे उबरने के बाद पिछले 1 दशक में वहां की अर्थव्यवस्था चौपट हो गई. श्रीलंका पर अरबों डॉलर्स का विदेशी कर्ज लदा है. विदेशी मुद्रा भंडार खाली है और महंगाई आसमान पर जा पहुंची है. इस देश की दुर्दशा के पीछे भ्रष्ट व स्वार्थी नेताओं का रवैया व नीतियां जिम्मेदार हैं. इसका खामियाजा जनता को भुगतना पड़ रहा है. लोगों का रोष राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्षे और प्रधानमंत्री महिंदा राजपक्षे पर है. 

    राजपक्षे परिवार के 4 सदस्य सत्ता में हैं. 2020 के चुनाव में भारी बहुमत हासिल करने वाले राजपक्षे बंधुओं की पार्टी अब अल्पमत में आ गई है. वहां आर्थिक के साथ ही राजनीतिक संकट भी है. चीन के कर्ज जाल में फंसा श्रीलंका अब संकट की घड़ी में भारत से मदद चाहता है. भारत ने भी उसे 2.4 अरब डॉलर की सहायता दी है और बाद में भी मदद करने का आश्वासन दिया है. 

    भारत की सहायता की वजह से श्रीलंका में पेट्रोल, डीजल, अनाज उपलब्ध है. भारत यूरोप-अमेरिका के समान समृद्ध नहीं है लेकिन फिर भी अपने पड़ोसी देशों जैसे कि नेपाल, बांग्लादेश और श्रीलंका की मानवीय आधार पर यथासंभव मदद करता है. इतने पर भी श्रीलंका की दोस्ती पर कैसे भरोसा किया जाए? उसके सैनिक हमारे मछुआरों पर गोलियां चलाते हैं. 

    विगत वर्षों में चीन से मदद पाने के बाद श्रीलंका भारत के हितों को नुकसान पहुंचा रहा था. भारत की सुरक्षा के लिहाज से घातक परियोजनाएं उसने चीनी कंपनियों को सौंप रखी थीं. भारत को अपने इन पड़ोसी देशों को संभालना पड़ता है ताकि वे चीन के बहकावे में न आ जाएं. मालदीव में भारत को इसी तरह का कटु अनुभव आ चुका है. इंसानियत के नाते पड़ोसी देशों की मदद करने के बावजूद ‘होम करते हाथ जलने’ की नौबत आती है.