चुनाव लड़ना महंगा पड़ा, किसान संगठनों की फूट सामने आई

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    जब तक किसान आंदोलन चल रहा था, तब तक बंधी मुट्ठी लाख की थी. कुछ किसान नेताओं ने गलतफहमी पाल ली कि वे चुनाव लड़कर सत्ता में आ सकते हैं या फिर निर्वाचित होकर सदन में अपनी मांगें जोर-शोर से उठा सकते हैं. आंदोलन करने का यह मतलब कदापि नहीं होता कि राजनीतिक जमीन पर भी आसानी से सफलता मिल जाएगी. देश की राजनीति में पार्टियों की बड़ी भूमिका है. निर्दलीय की तुलना में किसी पार्टी का अधिकृत उम्मीदवार हमेशा बेहतर स्थिति में रहता है. 

    जिस पार्टी का अच्छा-खासा प्रभाव है, उसका प्रत्याशी दूसरों से आगे रहता है. चुनाव यूपी का रहा हो या पंजाब का, उसमें किसान आंदोलन उल्लेखनीय मुद्दा नहीं बन पाया. यूपी में बीजेपी का सीधा मुकाबला सपा से था तो पंजाब में ‘आप’ कांग्रेस पर भारी पड़ रही थी. किसान नेताओं के बीच चुनाव लड़ने के मुद्दे पर पहले ही मतभेद था, फिर भी जोश-जोश में चुनाव लड़कर जमानत जब्त करा चुके बलवीरसिंह राजेवाल, भारतीय किसान सभा के अतुल अनजान के सामने हकीकत आ गई कि उन्होंने व्यर्थ का दुस्साहस किया. 

    आखिर 13 माह तक जबरदस्त आंदोलन चलानेवाला संयुक्त किसान मोर्चा (एसकेएम) चुनाव लड़ने के मुद्दे को लेकर दो फाड़ हो गया. दो गुटों ने अपनी अलग-अलग बैठकें कीं. एक बैठक में राकेश टिकैत, योगेंद्र यादव, दर्शन पाल, शिवकुमार कक्का व जोगेंद्रसिंह उग्राहां शामिल थे तो दूसरी बैठक में राजेवाल, अतुल अनजान तथा अन्य चुनाव लड़ने वाले किसान नेता थे. इस दूसरे धड़े ने 21 मार्च को लखीमपुर में बैठक करने और एमएसपी के मुद्दे पर मोदी सरकार द्वारा अभी तक समिति गठित न करने को लेकर वादाखिलाफी दिवस मनाने की घोषणा की. 

    इसके विपरीत योगेंद्र यादव गुट ने 11 से 17 अप्रैल तक एमएसपी समिति गठित करने और गेहूं की आगामी फसल का सरकारी खरीद मूल्य 2,700 रुपए प्रति क्विंटल करने की मांग की. बैठक में कहा गया कि सरकार ने आश्वासन दिया था कि किसानों पर दर्ज मुकदमें वापस होंगे और मुआवजा दिया जाएगा. इस पर विश्वासघात किया गया. इसके खिलाफ 21 मार्च को सभी जिला मुख्यालयों पर प्रदर्शन होंगे.