राज ठाकरे विचार करें, हिंदी विरोध की राजनीति का कोई औचित्य नहीं

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मनसे (MNS) प्रमुख राज ठाकरे (Raj Thackeray) कभी परप्रांतीयों को निशाना बनाते हैं तो कभी हिंदी विरोध की राजनीति करने लगते हैं. आखिर ऐसे नकारात्मक रवैये से हासिल क्या होता है? उनका मराठी प्रेम सराहनीय है. हर राज्य के लोगों को अपनी क्षेत्रीय भाषा पर अभिमान होता है लेकिन सभी को परस्पर जोड़नेवाली कोई सामर्थ्यवान संपर्क भाषा भी तो चाहिए. हिंदी ऐसे ही सेतु या पुल का काम करती है. मराठी जैसी पुरानी और संतों की भाषा से उसका कभी भी विरोध नहीं रहा. हिंदी सहज स्वीकार्य है.

उसे किसी पर जबरन लादने की बात भी नहीं हुई. हिंदी और मराठी दोनों देवनागरी लिपी में लिखी जाती हैं. महाराष्ट्र में रहनेवाले हिंदी भाषियों के लिए हिंदी माता है तो मराठी मौसी! कहीं किसी टकराव की बात ही नहीं है. चूंकि हिंदी बाजार और व्यापार की भाषा है तथा बोलचाल में आसान है इसलिए कितने ही मराठी भाषी स्वेच्छा से हिंदी में वार्तालाप करते हैं. महाराष्ट्र के कितने ही घरों में पूजा के समय हिंदी के अलावा मराठी आरती भी गाई जाती है.

हिंदी भाषी व्यक्ति भी मराठी का साहित्य चाव से पढ़ते हैं. हिंदी पत्रकारिता के विकास व उन्नयन में बाबूराव विष्णु पराडकर, लक्ष्मीनारायण गद्रे जैसे मराठी भाषी विद्वानों का बहुमूल्य योगदान था. मराठी भाषी लेखकों ने हिंदी साहित्य लेखन में नाम कमाया है. इसलिए हिंदी विरोध की राजनीति में कोई तुक नहीं है. राज ठाकरे का यह कथन कि हिंदी राष्ट्रभाषा नहीं है, काफी विचित्र है? वे बताएं कि वे किसे राष्ट्रभाषा मानते हैं. हिंदी हर कहीं बोली-समझी जाती है. उसकी सहज-स्वीकार्य व्यापकता है. महाराष्ट्र के मराठवाडा और विदर्भ में हिंदी बोली जाती है. मुंबई पहले ही कास्मोपोलिटन या बहुभाषी है.

यही स्थिति उपराजधानी नागपुर की है महाराष्ट्र राज्य बनने के बाद से 63 वर्षों में राज्य के सभी बच्चे मराठी पढ़ते रहे हैं फिर भाषा के मुद्दे पर संकीर्ण राजनीति क्यों होनी चाहिए? राज ठाकरे ने कहा कि जब राज्य के शहरों में मराठी की जगह हिंदी सुनाई देने लगती है तो मुझे तकलीफ होने लगती है. कोई पूछे कि इसमें तकलीफ की क्या बात है? क्या हिंदी कोई विदेशी भाषा है या किसी पर जबरन लादी जा रही है? महात्मा गांधी से लेकर नरेंद्र मोदी तक कोई भी अपनी मातृभाषा गुजराती तक सीमित नहीं रहे. संपर्क भाषा हिंदी बोलकर ही उन्होंने लोकप्रियता अर्जित की. उचित होगा कि भाषायी विवाद को अनावश्यक तौर पर हवा न दी जाए.