जनसंख्या नियंत्रण का मुद्दा, सरकार नहीं लाएगी 2 बच्चों की नीति

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    जब परिवार नियोजन के साधन उपलब्ध नहीं थे और बाल मृत्युदर भी अधिक थी तब अधिक बच्चोंवाले परिवार रहा करते थे. कृषि आधारित अर्थव्यवस्था होने से भी परिवार बड़े रहा करते थे. पिछले लगभग 5 दशकों में समय व दृष्टिकोण बदल गया. औद्योगीकरण की चुनौतियों ने लोगों को छोटे परिवार के लिए प्रेरित किया. आज एक बच्चे की परवरिश पर ही वर्ष में 2 लाख रुपए लग जाते हैं. शिक्षा भी महंगी हो गई है. देश में अनेक वर्ष पहले ‘हम दो हमारे दो’ का नारा लगा था.

    समझदार लोगों ने स्वेच्छा से परिवार नियोजन अपनाया और अब अधिकांश शहरी परिवारों में 1 या 2 बच्चे ही देखने को मिलते हैं. लोकसभा में यह पूछने पर कि क्या आबादी नियंत्रण के लिए राष्ट्रीय स्तर पर दो बच्चों की नीति लाने की कोई योजना है तो सरकार की ओर से कहा गया कि उसका ऐसा कोई विचार नहीं है. इसकी वजह यह है कि अब वांछित प्रजनन दर घटकर 1.8 हो गई है अर्थात औसत रूप से प्रति युगल 2 बच्चों से भी कम है. केरल, तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश और बंगाल जैसे राज्यों ने बिना कोई सख्ती के प्रजनन दर कम की है. जनसंख्या और विकास को लेकर एक अंतरराष्ट्रीय समझौता भी है जो भारत को परिवार नियोजन में जबरदस्ती से रोकता है इसलिए परिवार नियोजन न माननेवाले अल्पसंख्यक वर्ग से सख्ती नहीं की जा सकती.

    सरकार का कहना है कि जबरदस्ती करने से कुछ विसंगतियां हो जाती हैं जैसे कि लिंग के आधार पर गर्भपात, कन्या भ्रूण हत्या. केंद्र सरकार ने ‘मिशन परिवार विकास’ का उल्लेख करते हुए कहा कि सर्वाधिक प्रजनन दर वाले देश के 146 जिलों में परिवार नियोजन के साधन व सेवाएं मुहैया कराई गई हैं. आशा वर्कर ऐसे साधनों को घर-घर पहुंचाती हैं. लोग बेहतर जीवन स्तर की चाह में और महंगाई देखते हुए परिवार सीमित ही रखना चाहते हैं. इस तरह 2 बच्चों की नीति खुद ही चल पड़ी है.