अब चढ़ेगा राजनीतिक बुखार, बेसब्री से सत्र का इंतजार

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पड़ोसी ने हमसे कहा, ‘‘निशानेबाज, महाराष्ट्र विधानसभा और संसद दोनों का शीत सत्र शीघ्र ही शुरू होने जा रहा है. यत्र-तत्र-सर्वत्र आपको लोग सत्र का इंतजार करते नजर आएंगे. जब सत्र शुरू होता है तो राजनीतिक और सार्वजनिक जीवन में जीवंतता आ जाती है. ठंडे राजनीतिक माहौल में शीतसत्र गर्मी का अहसास कराने लगता है. शहर सोते से जाग उठता है.’’

हमने कहा, ‘‘कितने ही लोगों की उम्मीद की डोर सत्र से बंधी रहती है. कार्यकर्ता सक्रिय हो उठते हैं और भीड़ को पुंगी बजाकर मोर्चे में लाने का काम शुरू हो जाता है. ऐसे निठल्लों की कमी नहीं है जिन्हें किसी कामकाज या ड्यूटी पर जाना नहीं है. उन्हें ट्रकों और बसों में बिठाओ और मोर्चा-धरना स्थल पर पहुंचाओ. मोर्चे वाले घंटों प्रतीक्षा में बैठे रहते हैं कि कोई मंत्री या नेता फुरसत निकालकर उन्हें दर्शन देने आएगा और गुड़ की जलेबी जैसा आश्वासन देकर चला जाएगा. वैसे कागजी मांगों वाले ज्ञापन को कौन सीरियसली लेता है. हवाओं में शब्द गूंजते हैं- बर पाहू (ठीक है, देखते हैं) विचार करावा लागेल (विचार करना पड़ेगा) नक्की सांगता येणार नाही (कुछ पक्का बता नहीं सकते) तुम्ही मुंबईत या (इसके लिए तुम मुंबई में आओ), ड्राफ्ट करून पाठवा (ठीक से ड्राफ्ट बनाकर भेजो). कभी नेता कह देता है- माझी अर्जेंट मीटिंग आहे, पुढ़े केव्हा तरी (मेरी तत्काल बैठक है. बाद में कभी बात करेंगे).’’

पड़ोसी ने कहा, ‘‘निशानेबाज, सत्र का नजारा कुछ ऐसा होता है- एक ओर अनशनकारियों के मंडप, दूसरी ओर रात की भीगी पार्टियां, लालबत्ती की गाड़ियां, हार-गुलदस्ते, कलफदार कुर्ते और जैकेट. राहत के वादे, आश्वासनों की खैरात!’’ फोटोग्राफरों का जमघट, पुलिस की भारी तैनाती, सत्र के दौर में मंत्रियों के व्यस्त कार्यक्रम, कुछ प्रतिष्ठानों के उद्घाटन, हितैषियों और मीडिया हाउसेस को स्नेह भेंट. देखते ही देखते छोटा शीतसत्र सर्दी में सिकुड़ जाता है. चार दिन की चांदनी फिर अंधेरी रात वाली बात होती है. डेरा-डंडा समेट लिया जाता है. जो जन जहां से आए थे, तहं-तहं करो प्रयाण के साथ समापन होता है. शहर फिर अपनी नार्मल हालत में लौट आता है. फायदा यही होता है कि सत्र स्थल से जुड़ी सड़कें चकाचक हो जाती हैं.