- रंगपंचमी में रासायनिक रंगो का इस्तेमाल व पाणी के दुरूपयोंग का टाले
शंकरपुर. फागुन के शुरूवाती दौर में पलश के पेडों को लाल रंग के फुल लगने पर होली त्योहार का आगाज होता है. होली त्योहार पर पहले ग्रामीण क्षेत्र में छोटे लडके आट्या पाट्या व घनमाकड खेला करते थे. परंतु अब संगणकीय तथा आधुनिक युग में यह आट्या पाट्या व घनमाकड खेल शहर के साथ-साथ ग्रामीण क्षेत्र से भी विलुप्त होता जा रहा है.
होली में नैसर्गीक रंग के बजाए रासायनिक रंग का इस्तेमाल किया जा रहा है. साथ ही पाणी को फिजुल व्यर्थ किया जा रहा है. स्वयं के स्वास्थ की ओर ध्यान देते हुए तथा पाणी कि किल्लत से बचने के लिए रासायनिक रंग का इस्तेमाल तथा पाणी को व्यर्थ बहाने पर अंकुश लगाने की आवश्यकता है.
रंगपंचमी के दिन ग्रामीण क्षेत्र के लडके जंगल में जाकर पलश का गोल लकडा लाकर उसका घनमाकड बनाते है. एक बडे लकडे को जमीन में गड्डा बनाकर उसे खडा रखा जाता है. खडे लकडे को बिच में छेद कर आडा में बडा लकडा रखा जाता है. आडे में रखे गए लकडे पर संतुलन साधकर गोल घुमाया जाता है. इस घनमाकड के कर्कश आवाज के बावजुद छोटे लडकों से बडों तक हर आयु का व्यक्ति इस घनमाकड खेल का आनंद लेता है. आट्या पाट्या यह खेल ग्रामीण क्षेत्र में बडे उत्साह के साथ खेले जाते है.
आज की स्थिति में ग्रामीण क्षेत्र का विकास होने के कारण यह खेले विलुप्त होने की कगार पर होता जा रहा है. बदलते समय के अनुसार तथा संस्कृती के चलते हर कोई होली के महत्व को भुलता जा रहा है. पहले रंगपंचमी को पारंपारिक रंगो का इस्तेमाल किया जाता था. तथा पिले रंग व पलश के लाल रंग का इस्तेमाल किया जाता था. इस रंग से त्वचा किसी प्रकार का नुकसान नही होता था. परंतु आधुनिक काल में नैसर्गिक रंग के बजाय रासायनिक रंगों का इस्तेमाल किया जा रहा है. जिससे त्वचा व स्वास्थ पर विपरित असर हो रहा है. इससे नागरिकों को बचने की आवश्यकता है.