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    नागपुर. बुधवार को प्रशासन द्वारा विधान परिषद के लिए नामांकन दाखिल करने वाले उम्मीदवारों के पर्चे वैध होने के बाद राहत की सांस लेने वाले दोनों प्रमुख दल कांग्रेस और बीजेपी का टेंशन बढ़ा हुआ है. प्रत्याशी घोषित होने के बाद से दोनों दल अपने-अपने स्तर पर वोटरों से जो फीडबैक ले रहे हैं, उसमें बड़े पैमाने पर भितरघात होने का खतरा नजर आने लगा है. ऐसे में 14 दिसंबर को जब इस चुनाव का परिणाम आएगा, तब बहुत सारे बड़े खिलाड़ियों का यह राजनीतिक करिअर को ही दांव पर लगा देगा.

    कांग्रेस का शुगर बढ़ा, भाजपा का बीपी

    प्रत्याशी चयन को लेकर चल रही अटकलों के विपरीत दोनों प्रमुख दलों ने जो उम्मीदवार मैदान में उतारे हैं, उससे दोनों ही दलों के आम कार्यकर्ता में बहुत ज्यादा खुशी नजर नहीं है. बहरहाल इस चुनाव में वोटर आम कार्यकर्ता नहीं होता लेकिन जिस तरह का कनखुजरेपना आम कार्यकर्ता द्वारा किया जा रहा है, उसका सीधा असर वोटरों पर पड़ रहा है. वह वोटर भले ही महानगरपालिका का पार्षद हो, जिला परिषद सदस्य हो या नगर परिषद के मेंबर, सभी इस विचार में लग गये हैं आखिर इससे अपना क्या ‘लाभ’ होने वाला है. बाकी चुनावों की तरह भले ही आम आदमी इसमें वोट नहीं डालता लेकिन जो वोटर होता है, उसके ‘दिमाग’ को बरगलाने वालों में पार्टी के आम कार्यकर्ता के साथ-साथ उसके घर वाले भी हैं. दोनों दलों के नेता भले ही वोटों की गिनती अपने पक्ष में बता रहे हैं लेकिन असली फीडबैक मिलने के बाद कांग्रेस के बड़े नेताओं का ‘शुगर’ बढ़ गया है तो बीजेपी के दिग्गजों का ‘बीपी’ शूट हो गया है.

    कांग्रेस में ‘नये’ से प्यार, पुराने दरकिनार

    कांग्रेस का हाल यह है कि रवीन्द्र उर्फ छोटू भोयर को मैदान में उतारे जाने के बाद से 3 दशकों से ज्यादा समय से काम कर रहे ग्रास-रूट लेवल के कार्यकर्ता सीधा सवाल कर रहे हैं कि ‘नये’ से इतना प्यार क्यों. खुद को दरकिनार करने से यह कार्यकर्ता उतने आहत नहीं हैं, जितना बाहर वाले को आते ही टिकट दिये जाने से हैं. इनका मानना है कि वे इस चुनाव की हकीकत समझते हैं कि जिसके पास ‘माल’ है वही इतना बड़ा जोखिम उठा सकता है.

    पार्टी के पास भी ऐसे कई ‘मालामाल’ नेता हैं जो मैदान में उतरने को तैयार थे लेकिन रणनीतिकारों ने उनको मौका नहीं दिया. दूसरी ओर कुछ गरीब कार्यकर्ताओं का भी यह मानना है कि जब विधायक-मंत्री और बड़े नेता पार्टी द्वारा दी गई जिम्मेदारी को निभाते हुए ही ‘सेवा’ एवं ‘मेवा’ का भोग करते हैं तो ऐसे चुनाव के समय समुद्र में से एक लोटा जल निकालने की तैयारी रखना चाहिए. वैसे एक वर्ग यह भी मानता है कि आरएसएस की विचारधारा में पले-बढ़े आदमी को पार्टी में लाकर सीधे टिकट देने से तो अच्छा होता कि कांग्रेस इस चुनाव में वाकओवर ही दे देती. आलाकमान एक तरफ संघ-बीजेपी की विचारधारा से दिन-रात संघर्ष कर रहा है, जबकि यहां इसके विपरीत आचरण हो रहा है.

    दूसरी ओर कुछ प्रैक्टिकल सोच रखने वाले कार्यकर्ता भी हैं जो जानते हैं कि आरएसएस की शाखा में राजनीति के गुर सीखने वाला छोटू भोयर के स्तर के नेता को तोड़कर जब कांग्रेस ने लाया है तो इसकी सीधी चोट बीजेपी के उस कैडर पर पड़ेगी जो अपने आपको उपेक्षित ही समझ रहा है. उसमें भी यदि पालक मंत्री नितिन राऊत-पशु पालन मंत्री सुनील केदार की रणनीति फिट बैठ गई और परिणाम कांग्रेस के पक्ष में आ गया तो मनपा चुनाव की लड़ाई और भी आसान हो जाएगी. फिलहाल तो नये को हजम करने के लिए बड़े नेताओं पर हाजमोला चूर्ण बांटने की नौबत आई हुई है.

    बीजेपी में ‘बड़े’ ही ‘बड़े’ होंगे, ‘छोटे’ कभी ‘बड़े’ नहीं

    इधर बीजेपी में अलग ही अलगाव चल रहा है. इसका कारण भी छोटू भोयर ही हैं. भोयर को भले ही पार्टी के नेता बहुत ज्यादा तवज्जो नहीं देना चाह रहे हैं लेकिन जो झटका उनके जाने से मिला है, उसका अंदरूनी दर्द बहुत लोग महसूस करने लगे हैं. भोयर ने पार्टी छोड़ने के जो कारण गिनाए हैं, वे उस ज्वालामुखी का मुंह बन गया है जो हजारों कार्यकर्ताओं की भावनाओं का लावा फूटकर निकलने को तत्पर है. भोयर ने अपनी उपेक्षा को पार्टी छोड़ने का असली कारण बताया है. 2014 से केंद्र में सत्तारूढ़ और 2014 से 2019 तक राज्य में सत्ता के सिंहासन पर रहने के बाद ऐसे बीसियों नेता हैं जो इस तरह का दंश झेल रहे हैं. अमूमन अब बीजेपी का कार्यकर्ता जिसे कुछ भी नहीं मिला वह तो खुलेआम अपनी पीड़ा ‘राग-भोयर’ में गाने लगा है.

    जो किसी तरह संगठन में जुड़े हैं या छोटा-मोटा पद प्राप्त कर चुके हैं, वे नया राग अलाप रहे हैं. इनका राग है कि बीजेपी में ‘बड़े’ ही ‘बड़े’ होंगे, ‘छोटे’ कभी ‘बड़े’ नहीं होंगे. मसलन साफ है कि पार्टी की हालत भी एक दशक पहले वाली कांग्रेस पार्टी के जैसे हो गई है. यहां बड़े नेताओं को हर हाल में बड़ा ही रखा जाने की कवायद चलती रहती है. जो छोटा कार्यकर्ता होता है, उसकी किस्मत में सतरंजी उठाना , मोर्चे निकालना, लाठियां खाना ही लिखा होता है. जब पार्टी सत्ता में आ जाए तो मंत्रियों का स्वागत करना और जिंदाबाद के नारे लगाना. चंद्रशेखर बावनकुले की उम्मीदवारी को पार्टी एक कार्यकर्ता के साथ न्याय बता रही है, जबकि कार्यकर्ता का सवाल है कि जब न्याय ही करना था तो 2 साल पहले अन्याय ही क्यों किया. भोयर का पार्टी छोड़ना ऐसे कई कार्यकर्ताओं को प्रेरणा दे रहा है, जो गाहे-बगाहे बड़े नेताओं की छोटी ‘हरकतों’ का शिकार हुए हैं.

    नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद बड़ी संख्या में पार्टी में युवा वर्ग जुड़ गया. इसमें सभी तरह से सक्षम लोगों की संख्या बहुत ज्यादा है. इनका भी मानना लोकसभा के बारे में वे सोच नहीं सकते, विधानसभा की टिकट उनको मिलेगी नहीं, विधान परिषद में उनका नंबर लगेगा नहीं, फिलहाल महामंडल की मलाई उन तक पहुंची नहीं तो उनका क्या भविष्य है. ऐसे में जब बीजेपी ने यह हवा बनाई हुई है कि आने वाले मनपा चुनाव में वो 70 फीसदी टिकट काट सकती है तो अलग ही बगावती गुट तैयार हो गया है. इस गुट का मानना है कि वैसे भी 4 महीने बाद सब कुछ डूबने ही वाला है तो क्यों ना ‘हम तो डूबेंगे सनम, आपको भी ले डूबेंगे’ वाली कहावत को चरितार्थ किया जाए. वैसे बीजेपी के नेता ही नहीं आम बुद्धिजीवी भी बावनकुले को दमदार नेता मानता है, इसमें कोई दो राय भी नहीं. फिर भी जिस चुनाव में ‘माल’ ही सब कुछ है, वहां कोई ‘कंगाल’ बने रहने के बारे में कैसे सोच सकता है.