समय पर क्यों नहीं जागती सरकार, लॅाकडाऊन : ऐसे भी मर रहे, वैसे भी मरेंगे…!

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    कोरोना महामारी की दूसरी लहर ने अपना रौद्र रूप दिखा दिया. सरकारें सोती रहीं, मंत्री-अफसर एसी कमरों में बैठकर योजनाएं बनाते रहे. कुछ पहली लहर को ठीक से निपटने की सफलता के लिए खुद ही अपने हाथों से अपनी पीठ थपथपाते रहे तो कुछ अपने ‘भक्तों’ से जय-जयकार के नारे लगवाते रहे. राष्ट्र से लेकर महाराष्ट्र की सरकारें इस बार भी समय पर नहीं जागी. आखिर हुआ क्या? लॅाकडाऊन लगाना ही पड़ा, महाराष्ट्र में बढ़ाना ही पड़ा. लॅाकडाऊन-क्या होता है..! इसे लगाने से. आम आदमी को तो लॅाकडाऊन लगा तो भी मरना है और न लगा तो भी उसके भाग्य में जिंदगी कहां लिखी है.

    महाराष्ट्र में भी विलंब हुआ

    वैसे दूसरी लहर से जिस तरह मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने निपटने में कुशलता दिखाई है, उसका असर सुप्रीम कोर्ट से लेकर तो केन्द्र की सरकार तक पर दिखाई दिया. यहां तक कि प्रधान मंत्री को भी मुंबई मॅाडल को सराहना पड़ा. हकीकत यह है कि महाराष्ट्र में भी 1 अप्रैल से लेकर तो 10 मई के बीच में मौत का जो महातांडव हुआ, उसे उद्धव सरकार क्यों नहीं रोक पाई. शायद इसलिए कि उसके अधिकारियों ने फीडबैक सही नहीं दिया और सीएम और उनके मंत्रिमंडल का जनता से कोई जुडाव नहीं रहा. एक तरफ केन्द्र सरकार थी जिसने स्वास्थ्य क्षेत्र के विशेषज्ञों के कड़े लॅाकडाऊन लगाने की सिफारिशों को पढ़ना और देखना भी जरूरी नहीं समझा. हर मुद्दे के लिए दिल्ली की सरकार की तरफ झांकने वाली महाराष्ट्र की उद्धव सरकार ने भी यह समझ लिया कि जब मोदी सरकार ही लॅाकडाऊन जैसे किसी विकल्प पर विचार नहीं कर रही है तो उन्हें क्या जल्दी है. बीजेपी की परेशानी यह थी कि उसके लिए बंगाल और आसाम में चुनाव जीतना ज्यादा जरूरी था. महाराष्ट्र सरकार और उद्धव ठाकरे की तो ऐसी कोई मजबूरी नहीं थी. ऐसे में जब यमदूतों ने महाराष्ट्र के गांव-गली कूचों में अपना शिकार शुरू किया, तब तक सरकार किसका इंतजार करती रही? बहरहाल एक बात के लिए महाराष्ट्र सरकार की पीठ थपथपाना भी पड़ेगा कि देश में दूसरी लहर के दौरान उसने सबसे पहले अपने राज्य में लॅाकडाऊन लगाने का फैसला किया. भले ही तब तक हालात बद से बद्तर हो गये थे. अप्रैल में आने वाली लहर की चेतावनी को देखते हुए यदि सरकार और उसके अफसर समय से जाग जाते और मार्च में ही एक पखवाड़े का कड़ा लॅाकडाऊन लगा देते तो भी लोगों की जान बचाई जा सकती थी.

    उद्योग-धंधे चौपट, मजदूर-हाकर भूखे मर रहे

    लॅाकडाऊन किसी भी समस्या का समाधान नहीं है. यह तो प्रशासन के लिए दुधारी तलवार की तरह है. लॅाकडाऊन नहीं लगाया जाता तो महाराष्ट्र की हालत भी उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़ और गुजरात की तरह हो जाती. महाराष्ट्र में तो विपक्ष इतना जागरूक है कि सरकार की भविष्य में होने वाली गलतियों पर भी वह पहले से अपनी प्रतिक्रिया तैयार रखता है. लेकिन बीजेपी शासित प्रदेशों ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के टेस्टिंग-ट्रैकिंग-ट्रीटिंग वाले फार्मुले को अपनाना भी जरूरी नहीं समझा. यही वजह है कि वहां पर लोग जानवरों जैसे मर रहे हैं. और वहां विपक्ष भी चूड़ियां पहनकर बैठा है. हालात यह है कि गंगा-यमुना जैसी नदियां भी सरकारी मशिनरी की विफलता के कारण जो लोगों की अकारण मौते हुईं हैं, उनकी लाशों को स्वीकार भी नहीं कर रही.  महाराष्ट्र में लॅाकडाऊन लगाने से सब कुछ ठीक हो गया ऐसा भी नहीं है. यहां भी उद्योग-धंधे बीते दो महीने से चौपट हो गये. व्यापारी-कारोबारी की कमर टूट गई है. केन्द्र से आने वाला लाखों करोड़ का पैकेज सिर्फ खबरों की सुर्खियों में ही नजर आता है. जनता तिल-तिल कर मर रही है. हॅाकरों को महीने में 6000 रुपये और गरीबों को मुफ्त राशन देने का जो ढकोसला शुरू किया गया, वह कितनों तक पहुंचेगा यह सभी जानते हैं. मजदूरों ने फिर से पलायन शुरू कर दिया. अब तो मजदूर यूपी-बिहार में जिंदा रहेंगे तो ही लौटेंगे, इस तरह की भाषा बोलने लगे हैं. मतलब महाराष्ट्र की अर्थव्यवस्था पर लगा ग्रहण कितना लंबा जाएगा, इसका अंदाज लगाना मुश्किल है. 

    ‘मोदी-भरोसे’ रहना बंद करो

    दूसरी लहर के कहर ने जिस तरह देश की जनता को झकझोरा है उसके कारण ‘भाटों’ ने अपना सुर बदल दिया. राजनीतिक आकाओं की आरती उतारने में लगा दिल्ली से मुंबई तक का एक बड़ा वर्ग अब ‘भयभीत’ होकर ही सही, लेकिन गलत को गलत बोलने की हिम्मत जुटाने लगा. 2010 से 2014 के बीच में मनमोहन सिंह को जिस तरह ‘विफल प्रधानमंत्री’ बनाने की होड़ लगी हुई थी, मात्र उतनी हिम्मत अभी बाकी लोगों में आने की है. ऐसे में महाराष्ट्र सरकार को चाहिये कि यदि कोरोना की तीसरी-चौथी और आने वाली अनगिनत लहरों से बचने के लिए वह दिल्ली या प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के भरोसे रहेगी तो उसने अपने इस विचार पर मंथन करना चाहिये. कब तक ‘मोदी-भरोसे’ रहेंगे और क्या अब यह भरोसा उतना कारगर है भी की नहीं. और यदि ऐसा ही चलता रहा तो कहीं लोग उद्धव ठाकरे पर भी भरोसा करना बंद न कर दें.