
-सीमा कुमारी
प्रतिवर्ष भादो महीने की पूर्णिमा तिथि से ‘पितृपक्ष’ शुरू होता है, और यह आश्विन महीने की अमावस्या तक चलता है। इस वर्ष श्राद्ध 20 सितंबर से शुरू होकर 06 अक्टूबर तक चलेंगे। ‘पितृपक्ष’ में पूर्वजों को याद करके दान धर्म करने की एक विशेष परंपरा है।
हिन्दू धर्म में इन दिनों का विशेष महत्व होता है। ‘पितृपक्ष’ पर पितरों की मुक्ति के लिए कर्म किए जाते हैं। एक पक्ष तक चलने वाले इस श्राद्ध पक्ष में पितरों का तर्पण विधि-विधान से किया जाता है। ‘श्राद्ध’ का अर्थ श्रद्धा पूर्वक अपने पितरों को प्रसन्न करना। शास्त्रों के मुताबिक, जिनका देहांत हो चुका है और श्राद्ध के दिनों में पितर धरती पर आते हैं और किसी भी रूप में अपने वंशजों के घर जाते हैं।
ऐसे में अगर उन्हें तृप्त न किया जाए, तो उनकी आत्मा अतृप्त ही लौट जाती है। नाराज पितर अपने वंशजों को श्राप दे जाते हैं। वहीं, अगर पितर खुशी-खुशी वापस जाते हैं, तो वंशजों को खूब सारा आर्शीवाद दे जाते हैं, जिससे घर- परिवार में सुख-समृद्धि आती है।
ज्योतिष-शास्त्र के अनुसार, यदि घर में सुहागिन माताओं का देहांत हो गया हो और उनकी तिथि का ज्ञान न हो तो इस अवस्था में नवमी तिथि को उनका श्राद्ध कर देना चाहिए। अकाल-मृत्यु अथवा अचानक मृत्यु को प्राप्त हुए पूर्वजों का श्राद्ध चतुर्दशी तिथि को करना चाहिए।
घर में यदि पितरों की मृत्यु-तिथि का ज्ञान न हो तो उस समय अमावस्या के दिन उन सबका श्राद्ध अवश्य कर देना चाहिए। श्राद्ध के उपरांत ब्राह्मण को भगवान का स्वरूप मानते हुए पूर्वजों की संतुष्टि के लिए भोजन कराना चाहिए तथा दक्षिणा देकर उनसे आशीर्वाद प्राप्त करना चाहिए।
ऐसे करें ‘श्राद्ध’
‘पितृपक्ष’ के दौरान श्राद्ध कर्म या पिंडदान जरूरी होता है। पिंडदान हमेशा किसी विद्वान ब्राह्मण से ही करवाना चाहिए। पिंडदान हमेशा गंगा नदी के किनारे ही किया जाता है, अगर संभव हो तो गंगा नदी पर करवाएं। अगर संभव न हो तो घर पर भी करवा सकते हैं। पिंडदान या श्राद्ध कर्म दिन के समय ही होना चाहिए।
पिंडदान-कर्म में ब्राह्मण द्वारा मंत्रोच्चारण किया जाता है और पितरों का स्मरण करते हुए पूजा आरंभ की जाती है। इसके बाद जल से तर्पण करें। इसके बाद जो भोग लगाया जाना है उसमें से पंचबली भोग यानि गाय, कुत्ते, कौवे आदि का हिस्सा अलग कर दें। इनको भोजन देते समय अपने पितरों का स्मरण जरूर करें। ऐसा करते समय उनसे श्राद्ध ग्रहण करने का निवेदन करना न भूलें। अंत में ब्राह्मण को भोजन करवाते हुए उन्हें दान दक्षिणा देकर सम्मान के साथ विदा करें।