कभी कुछ ऐसी नीतियां या नियम बना दिए जाते हैं जिनसे हित की बजाय नुकसान होता है। विगत वर्षों से अनिवार्य शिक्षा अधिनियम के तहत कक्षा पहली से लेकर 8वीं तक बच्चों को फेल नहीं किया जाता था बल्कि परीक्षा में प्राप्त अंकों के आधार पर ग्रेडिंग के जरिए अगली कक्षा में प्रवेश दे दिया जाता था इसका नतीजा आत्मघाती साबित हुआ। बच्चों का अक्षर ज्ञान भी पूरी तरह नहीं होता था। वे ठीक से पढ़-लिख नहीं पाते थे। उन्हें बुनियादी गणित भी नहीं आता था फिर भी वे नवीं कक्षा तक पहुंच जाते थे। तब पता चलता था कि वे कितने पानी में है। पालक निश्चिंत थे कि बच्चा मजे से पास हो रहा है।
शिक्षक भी इसलिए ध्यान नहीं देते थे कि बच्चे को पास तो करना ही है। इसलिए अध्यापन में भी पूरी तरह ढील आ गई। नए नियमों के मुताबिक बच्चों को चपत लगाना तो दूर। डांट भी नहीं सकते। बच्चा चाहे पढ़े या न पढ़े। उस पर घर या स्कूल का कोई दबाव ही नहीं रह गया। आठवीं तक फेल न करने के नियम की वजह से शिक्षकों को भी मेहनत से पढ़ाने की बजाय अपनी तनख्वाह से मतलब रह गया। पढ़ाई का स्तर बुरी तरह गिर गया। पहले तिमाही-छमाही।
वार्षिक परीक्षाएं हुआ करती थीं। इसके बाद यूनिट टेस्ट होने लगे जिससे पता चलता था कि विद्यार्थी पढ़ाई कर रहा है या नहीं। पहले वार्षिक परीक्षा के बाद रिजल्ट के साथ मार्कशीट मिल जाती थी जिससे पता चल जाता था कि छात्र को किस विषय में कितने नंबर मिले हैं।पहली से 8वीं तक परीक्षा में पास होने की अनिवार्यता खत्म हो जाने से विपरीत परिणाम आने लगे।
इससे शिक्षा विभाग को अपनी भूल का एहसास हुआ। इसलिए अब ढिलाई पर अंकुश लगा दिया गया है। जो छात्र वार्षिक के बाद पूरक परीक्षा में भी अनुत्तीर्ण हो जाता है वह फेल ही माना जाएगा। इस प्रावधान के बाद शिक्षकों पर अच्छी तरह से अध्यापन करने का दबाव रहेगा तथा छात्र भी पढ़ाई को गंभीरता से लेंगे।