ईंधन कंपनियां चुनाव के समय रेट नहीं बढ़ा पाईं, सरकार के इशारे से तय होते हैं दाम

    Loading

    यद्यपि सरकार दावा करती है कि तेल कंपनियां पेट्रोल-डीजल की दरें तय करने के लिए स्वतंत्र हैं तथा इसमें उसका कोई हस्तक्षेप नहीं है लेकिन सच्चाई यही है कि केंद्र सरकार के इशारे से दाम तय किए जाते हैं. इसका सबसे बड़ा प्रमाण यही है कि जब तक 5 राज्यों के विधानसभा चुनावों की प्रक्रिया जारी थी, तब पेट्रोल-डीजल के दाम स्थिर बने रहे. उनमें कोई बढ़ोतरी नहीं की गई क्योंकि केंद्र सरकार को भय था कि यदि दाम बढ़ाए गए तो जनता बीजेपी को वोट नहीं देगी. सरकार की मर्जी देखते हुए पेट्रोलियम कंपनियों ने तब दाम बढ़ाने की हिम्मत नहीं की. 

    चुनाव जीत जाने के बाद इन कंपनियों को मनमाने दाम बढ़ाने की खुली छूट दे दी गई. इसके बाद सरकार निश्चिंत हो गई कि वह जनता पर मनचाहे ढंग से महंगाई का बोझ लादने के लिए स्वतंत्र है और उसे ऐसा करने से रोकने वाला कोई नहीं है. पिछले दिनों प्रतिदिन पेट्रोल-डीजल के दाम लगभग 80 पैसे बढ़ाए जाते रहे. इसी के साथ टैक्स की रकम भी जुड़ती चली गई. 22 मार्च से 6 अप्रैल तक पेट्रोल-डीजल के दाम 10 रुपए प्रति लीटर तक बढ़ गए. टैक्स मिलाकर यह रकम और ज्यादा हो जाती है.

    विपक्षी दल सरकार की नस-नस जानते हैं, तभी तो कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने चुनाव नतीजे आने के बाद टि्वटर पर लिखा था- ‘चुनाव खत्म हो गए हैं, अपनी गाड़ियों की टंकी फुल करा लें. सरकार किसी भी समय तेल के दाम बढ़ा सकती है.’ सरकार भी जानती है कि पेट्रोल-डीजल जनता के लिए संग्रह करने लायक वस्तुएं नहीं हैं. 

    वह टंकी फुल करा भी ले तो 8-10 दिन बाद फिर पेट्रोल-डीजल खरीदने आना पड़ेगा. खुद सरकार की ओर से कहा गया था कि तेल कंपनियों को अपना मार्जिन बनाए रखने के लिए पेट्रोल-डीजल कीमतों में 19 रुपए प्रति लीटर तक की वृद्धि की आवश्यकता है. इसीलिए एक झटके से भाव बढ़ाने के बजाय रोज 80 पैसे दाम बढ़ाने का फार्मूला निकाला गया.

    मनमोहन सरकार ने दरें नहीं बढ़ने दी थीं

    2014 के पहले जब मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार थी तब ब्रेंट क्रूड ऑइल के दाम रिकार्ड स्तर पर पहुंच जाने के बाद भी पेट्रोल-डीजल के दाम नहीं बढ़ाए गए थे. अब तो पेट्रोल-डीजल और रसोई गैस के दाम आसमान छूने लगे हैं. सरकार भी जानती है कि न कारों की बिक्री कम हो रही है, न टू व्हीलर की. जनता किसी भी तरह रो-झींककर महंगाई का बोझ उठा ही लेती है. 

    सरकार को यदि जनता की तकलीफों की फिक्र होती तो वह पेट्रोल-डीजल पर एक्साइज ड्यूटी कम करती. उसकी दलील रहती है कि यदि अच्छी सड़कें, हाईवे और पुल चाहिए तो लोगों को बढ़े हुए टैक्स का बोझ सहने को तैयार रहना होगा. मतलब यह कि विकास की कीमत चुकानी होगी. अभी आम जनता को क्रूड की कीमत में स्थिरता का फायदा नहीं मिल रहा है.

    दाम नहीं घटाने पर अड़ी कंपनियां

    ईंधन के दाम कम नहीं करने पर कंपनियां अड़ी हुई हैं. पेट्रोलियम कंपनी के अधिकारी के अनुसार पिछली तिमाही में ब्रेंट क्रूड की कीमत 100.40 डॉलर प्रति बैरल रही है जो वार्षिक आधार पर 65 प्रतिशत से अधिक है. रूस-यूक्रेन युद्ध के चलते इसमें 20 डॉलर प्रति बैरल की तेजी आई है. अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल कीमत बीच में 139 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंच गई थी जो पिछले 6 वर्षों में अधिकतम थी. 

    दूसरी ओर यह भी संकेत मिले हैं कि पेट्रोल-डीजल पर एक्साइज ड्यूटी कम करने को लेकर वित्त मंत्रालय और पेट्रोलियम मंत्रालय के बीच 2 दौर की बातचीत हो चुकी है. पेट्रो पदार्थों के बाद रसोई गैस की कीमत नियंत्रित करने के लिए सरकार में उच्च स्तर पर माथापच्ची जारी है. अमेरिका में पेट्रोल के दाम 1 डॉलर भी बढ़े तो जनता को फर्क नहीं पड़ता लेकिन यहां तो विनिमय दर के हिसाब से बहुत ज्यादा फर्क पड़ जाता है. भारत 1 महीने में जितना पेट्रोल-डीजल खर्च करता है, यूरोपीय देश उतना सिर्फ एक दिन की शाम में खर्च कर डालते हैं.