क्या सोनिया-राहुल की कठपुतली है खड़गे?

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आमतौर पर यही धारणा है कि कांग्रेस का जो भी अध्यक्ष होता है, वह नेहरू-गांधी परिवुार के दबाव में बने रहने के अलावा एहसानमंद भी होता है कि उसे इस परिवार की वजह से यह पद मिला. कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने खुल्लमखुल्ला कह भी दिया कि सोनिया गांधी और राहुल गांधी ने उन्हें पार्टी प्रेसीडेंट बनाया है. यदि ऐसी बात है तो कांग्रेस अध्यक्ष पद को लेकर जो चुनाव कराया गया था, क्या वह कोरा दिखावा था? जब खडगे के खिलाफ शशि थरूर खड़े थे और बाकायदा वोटिंग हुई जिसमें वोटों के बड़े अंतर से खड़गे की जीत हुई तो यह दिखावा हरगिज नहीं था.

इतने पर भी तब संदेश यही गया था कि सोनिया और राहुल की पसंद के अधिकृत उम्मीदवार खड़गे है. शशि थरूर जानते थे कि केरल छोड़कर अन्यत्र उनका स्थान नहीं है फिर चुनाव को लोकतांत्रिक और निष्पक्ष दिखाने की खातिर वे खड़गे के खिलाफ चुनाव मैदान में उतर गए थे. वास्तव में इस पद के लिए खड़गे पहली च्वाइस नहीं थे. सोनिया गांधी चाहती थी कि अशोक गहलोत राजस्थान का मुख्यमंत्री पद छोड़कर पार्टी की कमान संभाल लें लेकिन गहलोत टस से मस नहीं हुए. उन्हें सीएम की कुर्सी नहीं छोड़नी थी. ऐसी स्थिति में सोनिया व राहुल ने खड़गे को कांग्रेस अध्यक्ष पद का प्रत्याशी बनाया था. उनका चुनाव सर्वसम्मति से नहीं हो पाया क्योंकि थरूर ने भी फार्म भर दिया जिस वजह से मतदान होकर रहा. 80 वर्षीय खड़गे को अध्यक्ष इसलिए भी बनाया गया क्योंकि वह कर्नाटक के दलित नेता है. दलित वोटों को साथ लाने का विचार इसके पीछे रहा होगा.

गलत संदेश गया खड़गे के बयान से यह सवाल उठ खड़ा हुआ कि वो पार्टी के इलेक्टेड अध्यक्ष हैं या ऐलेक्टेड? क्या उन्हें सोनिया और राहुल की कठपुतली माना जाए?

गांधी-नेहरू का वर्चस्व

जब जबलपुर के समीप …. कांग्रेस का अधिवेशन हुआ था तब महात्मा गांधी ने अध्यक्ष पद के लिए पार्टी का अधिकृत प्रत्याशी पट्टाभि सीतरमैया को बनाया था. नेताजी सुभाष चंद्र बोस की भारी बहुमत से जीत हुई थी. तब महात्मा गांधी ने दुखी मन से कहा था कि पट्टामि की हार मेरी हार है. बापू के प्रभावशाली कांग्रेस कार्यकारिणी ने सुभाष बाबू को सहयोग देना अस्वीकार कर दिया था. तब सुभाष बाबू को मजबूरी में कांग्रेस से इस्तीफा देकर फारवर्ड ब्लाक बनाना पड़ा था. इसी प्रकार पं. नेहरू से मतभेदों की वजह से राजष्रि पुरुषोत्तम दास टंडन ने.. कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा दिया था.

इंदिरा-निजलिंगप्पा टकराव

1968-69 में कर्नाटक के पास निजलिंगप्पा अविभाजित कांग्रेस के अंतिम अध्यक्ष थे. 1969 में इंदिरा गांधी का कांग्रेस के बुजुर्ग नेताओं से टकराव बढ़ गया था. राष्ट्रपति चुनाव में कांग्रेस के अधिकृत प्रत्याशी नीलम संजीव रेड्डी के खिलाफ इंदिरा ने अपने प्रत्याशी वीवी गिरी को खड़ा कर दिया था. गिरी चुनाव जीत गए. इसी दौरान पार्टी 2 हिस्सों में बंट गई. इंदिरा का पार्टी कांग्रेस (आई) कहलाई और निजलिंगप्पा, अतुल्य घोष, मोरारजी देसाई, एसके पाटिल व संजीव रेड्डी की पार्टी कांग्रेस (ओ) या संगठन.. कांग्रेस कहलाने लगी थी. बाद में इंदिरा अधिक ताकतवर साबित हुई. पार्टी का पुराना चुनाव चिन्ह बैलजोड़ी जब्त हो गया और उसकी जगह गाय-बछडा चिन्ह मिला था. आगे चलकर कांग्रेस को हाथ (पंजा) चुनाव चिन्ह मिला.

बरुआ की जापलूसी

1975 से 1977 तक आपातकाल के दौरान देवकांत बरुआ कांग्रेस अध्यक्ष रहे. तब उन्होंने खुशामद की पराकाष्ठा करते हुए बयान दिया था- इंदिरा इज इंडिया एंड इंडिया इज इंदिरा! इसी तरह 1996 से 1998 तक कांग्रेस अध्यक्ष रहे सीताराम केसरी ने भी सोनिया गांधी की स्तुति की थी कि सोनियाजी आइए, पार्टी बचाइए. तब 1998 में केसरी को हटाकर सोनिया गांधी ने पार्टी अध्यक्ष पद संभाल लिया था. वे 2017 तक इस पद पर बनी रहीं. 2017 में राहुल गांधी पार्टी अध्यक्ष चुने गए लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की हार के बाद उन्होंने नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए अध्यक्ष पद छोड़ दिया. तब सोनिया ने अंतरिम अध्यक्ष का पद संभाला था. बाद में खड़गे अध्यक्ष निर्वाचित हुए.