आरटीआई के ताबूत में अंतिम कील है नया डाटा कानून

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डॉ. अनिता राठौर

अनेक सांसदों व सिविल सोसाइटी एक्टिविस्ट्स को लगता है कि हाल ही में गठित डिजिटल पर्सनल डाटा प्रोटेक्शन एक्ट (डीपीडीपी) 2023 सूचना का अधिकार कानून (आरटीआई) के ताबूत में अंतिम कील साबित हो सकता है, जबकि वह पहले ही पिछले कुछ वर्षों के दौरान अपनी चमक खोकर धीरे धीरे मर रहा था. इसमें दो राय नहीं हैं कि जब 2005 में आरटीआई को लाया गया था तो इसका स्वागत एक ऐसे क्रांतिकारी कानून के रूप में हुआ था जो सरकार को पारदर्शी व जवाबदेह बना देगा और अगले एक दशक तक वह उम्मीदों पर खरा भी उतरा. लेकिन उसके बाद इसमें हज़ारों कट लगा दिए गये यानी डीपीडीपी के आने से पहले ही आरटीआई मरणासत्र हो चुका था.

आरटीआई में प्रावधान था कि व्यक्तिगत सूचना उस समय तक उपलब्ध नहीं कराई जा सकती, जब तक कि वह जनहित में न हो. डीपीडीपी में इसे बदलकर यह कर दिया गया है कि कोई व्यक्तिगत सूचना उपलब्ध नहीं कराई जायेगी. पेंशन, राशन, सरकारी स्कॉलरशिप्स आदि से संबंधित प्रश्नों में अक्सर उन लोगों के बारे में जानकारी का आग्रह होता है, जिनके पास इन लाभों को वितरित करने का अधिकार होता है. व्यक्तिगत सूचना जारी करने पर पूर्ण प्रतिबंध से उम्मीद की छोटी सी खिड़की भी बंद हो जायेगी.

आरटीआई को लागू करने की ज़म्मिेदारी सूचना आयोगों (आईसी) पर है, जो दोनों केंद्र व राज्यों के स्तर पर होते हैं. सतर्क नागरिक संगठन (एसएनएस) द्वारा एकत्र किये गये डाटा से मालूम होता है. राज्यों के स्तर पर अक्सर सूचना आयुक्तों के पद रिक्त पड़े रहते हैं; क्योंकि नियुक्तियों में देरी होती है. मणिपुर में 44 महीनों तक मुख्य सूचना आयुक्त नहीं था. नतीजन लम्बित मामलों की संख्या निरंतर बढ़ती जाती है. एसएनएस के अनुसार देश के 26 सूचना आयोगों में मार्च 2019 में शिकायतों की संख्या 2.19 लाख थी जो जून 2022 में बढ़कर 3.14 लाख हो गई.

महाराष्ट्र में सर्वाधिक बैकलाग

महाराष्ट्र के राज्य सूचना आयोग में सबसे अधिक बैकलाग (एक लाख से अधिक कैस) है और इसके बाद उत्तर प्रदेश (लगभग 45,000 केस) का बैकलाग नंबर है. देर से मिली सूचना का कोई अर्थ नहीं रह जाता. बंगाल में एक केस 4 वर्ष 3 माह में निपटा. केंद्र सहित 12 आयोगों में औसतन एक वर्ष से अधिक में मामला निपटता है. झारखंड के आयोग में तो कोई अधिकारी ही नहीं है. केंद्रीय सूचना आयोग ने 2015 के बाद से बड़ी संख्या में अपीलों को अस्वीकार किया है. औसतन वार्षिक अस्वीकृति 60 प्रतिशत से अधिक है, जबकि उससे पहले के वर्षों में यह न के बराबर थी.

आरटीआई के आने पर यह उम्मीद बंधी थी कि हम अधिकार-आधारित संस्कृति की ओर बढ़ रहे हैं जहां नागरिकों की सूचनाओं तक पहुंच होगी. अब यह आशा टूटती नजर आ रही है. आरटीआई विधेयक का कंसेप्ट तैयार करने वाले मज़दूर किसान शक्ति संगठन (एमकेएसएस) के निखिल डे. का कहना है, ‘‘यह उपनिवेशवादी विरासत से छुटकारा पाने का आंदोलन था ताकि पारदर्शिता की की ओर बढ़ा जा सके.’’ लेकिन अब 18 साल बाद क्या मिल रहा है- सरकार का अपनी तरफ से सूचना प्रदान करने में संकोच है, आग्रह लम्बे समय तक अटके रहते हैं, जब सूचना समय पर नहीं दी जाती तो दंडात्मक कार्यवाही का अभाव रहता है

 

इन कारणों से भी आरटीआई धीरे धीरे मरने लगी थी. सीआईसी के पूर्व सूचना आयुक्त शैलेश गांधी व्यंग्यपूर्वक कहते हैं कि आरटीआई का अर्थ है ‘सूचना न देने का अधिकार’. आरटीआई के तहत राष्ट्रीय सुरक्षा या जिससे किसी की प्राइवेसी का उल्लंघन हो से संबंधित सूचना सार्वजनिक नहीं की जा सकती थी. लेकिन करदाताओं का पैसा कैसे खर्च हो रहा है, मतदाता सूची, चुने हुए प्रतिनिधियों के अपराधिक रिकॉर्ड आदि से संबंधित सूचनाएं भी लम्बे अदालती संघर्षों के बाद ही सार्वजनिक हो सकी हैं.

सरकारी अधिकारियों की सूचना नहीं दी जाएंगी

2011 में सूचना आयुक्त रहते हुए गांधी ने आरबीआई को आदेश दिया था कि वह लोन डिफ़ॉल्टर्स की सूची सार्वजनिक करे. इसके चार वर्ष बाद उन्होंने यही सूचना एक पब्लिक सेक्टर बैंक से मांगी. जिसे बैंक ने देने से इंकार कर दिया. सरकारी अधिकारियों का पहला प्रयास यही होता है कि सूचना न दी जाये. आरटीआई के सेक्शन 4 के तहत प्रोएक्टिव सूचना प्रदान करने का वायदा है जो पूरा नहीं किया जा रहा है. अब यह आग्रह- आधारित सूचना कानून बनकर रह गया है और यह मांग भी पूरी नहीं की जा रही है; क्योंकि सिस्टम आरटीआई अर्जियों को सिरदर्द समझता है बजाय इसके कि करदाता अपने अधिकार के तहत सूचना मांग रहा है. डीपीडीपी में कहा गया है कि आरटीआई के तहत सरकारी अधिकारियों की व्यक्तिगत सूचना सार्वजनिक नहीं की जायेगी; जनहित में भी ऐसा नहीं किया जायेगा.

भ्रष्टाचार को एक्सपोज करने, मानवाधिकारों के उल्लंघन और सत्ता को सच दिखाने के लिए नागरिकों ने आरटीआई का इस्तेमाल किया है और संभवत: यही कारण है कि राजनीतिक वर्ग ने इस कानून को निरंतर कमज़ोर करने का प्रयास किया है और अब डाटा एक्ट ने ऑफिशियल सीक्रेट्स एक्ट की गोपनीयता की चादर देश के हर नागरिक पर डाल दी है जबकि अब तक इसके नीचे सिर्फ नौकरशाह थे.