सिर्फ बेचारी जनता खाए मोटा अनाज, जंगली सब्जियां

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सरकार गेहूं, चावल और दाल के निर्यात की बढ़ाया देकर चाहती है कि देश की जनता मोटा अनाज और जंगली सब्जियां खाए. जनता को जो मिलेगा, उसे खाना उसकी मजबूरी है. जब 1965-66 में देश भीषण अन्नसंकट के दौर से गुजर रहा था तब अमेरिका ने पीएल-480 कानून के तहत भारत को ऐसा मोटा अनाज भेजा था जो पशुओं के खाने योग्य भी नहीं था. तब बेस्वाद लाल गेहूं, लाल ज्वार (माइलो) राशन की दूकानों में मिलता था वह भी कम मात्रा में.

तब शक्कर भी बहुत सीमित मिलती थी. जिनके यहां शादी-ब्याह होता था वे निमंत्रण पत्रिका की कॉपी अटैच कर बड़ी मुश्किल से राशन का अधिक कोटा ले पाते थे. खुले बाजार में अनाज नहीं था. बाद में डा. नार्मन बोरलाग के प्रयासों से हरित क्रांति हुई और सोना व सोनालिका नामक अधिक उपज वाला बौना गेहूं का पौधा उगाने में सफलता मिली. अमेरिकी लाल गेहूं के साथ कांग्रेस घास (पार्थेनियम) का बीज भी आया जो हवा से फैलता था और जमीन को बंजर करता था.

अनाज कैसा भी हो, उसकी पैदावार के लिए रासायनिक खाद, इंसेक्टिसाइड, पेस्टिसाइड का खर्च उठाना ही पड़ता है. इसलिए मोटा अनाज भी पहले की तुलना में महंगा हुआ है. ज्वार, बाजरा, रागी, कुटकी, कोदों को अंग्रेजी में मिलेट और हिंदी में ‘श्री अन्न’ का नाम दिया गया है. सरकार मिलेट वर्ष मनाकर मोटे अनाज को लोकप्रिय करने में लगी है. इसके अलावा जंगली सब्जियां खाने की सलाह भी दी जा रही है. महाराष्ट्र में इसे रान भाजी कहा जाता है जो बारिश में अपने आप उगती हैं.

ये हैं- तरोटा, अंबाड़ी, जंगली सेमा, सिंहपर्णी, चुभता बिछुआ, जंगली पालक, वाघाडी, काटोल, जिवती, कुंडलित पत्ते, जंगली शतावही, धोपे के पान, छत्तीसगढ़ की चेंच, बोहरा और खेडा भाजी. इसके अलावा देश के विभिन्न हिस्सों में बथुआ, खुम्बी, जंगली करेला, जंगली मशरूम, लर्भर आदि जंगली सब्जियां आम तौर पर ग्रामीण क्षेत्रों में मिलती हैं. जंगली सब्जियों को विटामिन और मिनरल युक्त बताया जाता है. वैसे नमक, मिर्च, मसाला किसी भी सब्जी को खाने योग्य बना देता है.