नेताओं को तमाचा, चुनाव आयोग को हंटर मनपा चुनावों पर सुप्रीम कोर्ट का सख्त कदम

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    सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को एक बार फिर से देश के नेताओं को करारा तमाचा लगाते हुए ओबीसी वोट बैंक की आड़ में चलाई जा रही दुकानदारी पर गहरी आपत्ति जताई है. सर्वदलीय नेताओं को हड़काने के साथ-साथ महाराष्ट्र और झारखंड के राज्य चुनाव आयोग को भी कोर्ट ने जमकर हंटर लगाया है. दोनों राज्यों के चुनाव आयोगों को अब 8-15 दिन के भीतर स्थानीय निकाय के चुनाव का कार्यक्रम जारी करने के आदेश देते हुए हर हाल में चुनाव खत्म करने के सख्त आदेश दिए हैं.

    ओबीसी वोटबैंक की आड़ में उड़ा रहे धज्जियां

    वास्तव में स्थानीय निकाय चुनाव का सीधा गणित ओबीसी वोटबैंक से है. इसी ओबीसी वोटबैंक को खुश करने के लिए देश के सभी प्रमुख राजनीतिक दल हरसंभव मक्खनबाजी में लगे हुए हैं. ओबीसी समाज को आरक्षण देने का वादा करने वाले महाराष्ट्र के सभी राजनीतिक दल को यह भान नहीं रहा कि आरक्षण अपनी तय मर्यादा पहले ही पार कर चुका है. ओबीसी का आरक्षण भी उसमें समाहित है. अब नये सिरे से ओबीसी आरक्षण का कोटा बढ़ाना है तो उसके लिए भी कानून की अलग प्रक्रिया का पालन करना होगा. महाराष्ट्र में भी ओबीसी वोटबैंक राज्य में सत्ता बनाने और बिगाड़ने का माद्दा रखता है.

    ऐसे में बीजेपी-शिवसेना हो या कांग्रेस-राकां, कोई भी इस समाज के साथ दगाबाजी करने की सोच भी नहीं सकता. राज्य में फिलहाल पिछले ढाई वर्षों से एक अजीबोगरीब राजनीतिक नौटंकी चल रही है. बीजेपी सत्ता से बाहर है तो वह दिल्ली के आकाओं के साथ मिलकर रोज नये कारनामों को अंजाम दे रही है. शिवसेना-कांग्रेस-राकां मिलकर सत्ता में हैं तो वो अपनी कुर्सी बचाने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाने में लगे हुए हैं. ऐसे में ओबीसी आरक्षण का विषय हो या मराठा आरक्षण का, सभी की अपनी डफली और अपना-अपना राग है. कोई भी इसकी जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं है.

    कौन बताएगा, कितने ओबीसी हैं…?

    सुको ने तो चुनाव आयोग को हंटर लगाकर स्थानीय निकाय के चुनाव कराने का आदेश दे दिया. अब राजनीतिक दलों की मुसीबत यह है कि वह बगैर ओबीसी आरक्षण यदि चुनाव कराते हैं या उसका समर्थन भी करते हैं तो पूरे समाज से नाराजगी मोल लेने जैसा है. ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर इस मुद्दे का स्थायी समाधान क्यों नहीं खोजा रहा है? बीते 5 वर्षों से राज्य में एक और शब्द पर जमकर राजनीति हो रही है- ‘इम्पीरिकल डाटा’. यह ऐसा शब्द है जो सभी राजनेताओं का बड़ा प्रिय शब्द बन गया है. राज्य की आघाड़ी सरकार के बड़े नेता इम्पीरिकल डाटा उपलब्ध नहीं कराने के लिए केंद्र की भाजपा सरकार को दोषी बता रहे हैं.

    राज्य में विपक्षी बीजेपी के नेता ओबीसी की गणना में विलंब के लिए आघाड़ी सरकार को जिम्मेदार ठहराए हुए है. अब सवाल यही है कि आखिर राज्य में ओबीसी कितने हैं? इनकी गिनती क्या सही में बहुत ही कठिन काम है? सभी राजनीतिक दल मिलकर चाह लें और अपने कैडर को काम पर लगा दें तो 15 दिन में यह डाटा जमा हो जाएगा. असली पंगा यहीं शुरू होता है. डाटा किसी को भी नहीं जमा करना है, सभी को राजनीति करनी है. कोई भी नहीं चाहता कि ओबीसी को न्याय मिले. लोग भी समझ रहे हैं. शायद समाज का कथित रूप से नेतृत्व करने वाले भी अपने सामाजिक बंधुओं की मजा ले रहे हैं.

    क्या ‘आजाद’ होगा चुनाव आयोग

    सुको के फैसले की प्रति देर शाम तक उपलब्ध नहीं होने से अब भी यही भ्रम है कि आखिर कोर्ट का आदेश चुनाव कराने का है या चुनावी प्रक्रिया शुरू कराने का? विशेषज्ञों का दावा है कि इस पर बाद में बहस की जा सकती है. मात्र अभी सवाल यह है कि कोर्ट यदि राज्य चुनाव आयोग को सरकारों और राजनीतिक दलों के उनके आकाओं से आजादी दिलाने का प्रयास कर रहा है तो इसमें क्या हर्ज है. राज्य चुनाव आयोग भी केंद्रीय चुनाव आयोग की तरह ही स्वायत्त संस्था है.

    पिछले कुछ समय से देश में स्वायत्त संस्थाएं अपने राजनीतिक आकाओं की गोद में जा बैठी हैं. सवाल आगे भी जारी रहेगा कि जब देश में फिर से संवैधानिक संस्थाएं गुलाम हो जाएंगी तो देश की आजादी कैसे बचेगी? जब आजादी ही नहीं बचेगी तो चुनावों का मतलब ही क्या रह जाएगा? सत्ता आती-जाती रहेगी, यदि संस्थाएं अपनी जिम्मेदारी नहीं समझेंगी तो सुप्रीम कोर्ट को हर मुद्दे पर हंटर लगाना ही पड़ेगा.