भारत की शिक्षा व्यवस्था पर प्रश्नचिन्ह, काला अक्षर भैंस बराबर

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अक्सर क्लास में जब भोलू को सवाल का जवाब नहीं आता तो मास्टर जी कहते हैं..  तेरे लिए तो ‘काला अक्षर भैंस बराबर है’।  उस समय मास्टर की यह डपट समझ नहीं आती, पर अब उसकी आंखें खुल गई, क्योंकि उसके बच्चों को अंग्रेजी की एबीसीडी भी नहीं आती।  हालांकि बच्चे मोबाइल गेम पर दिन भर उंगलियां दौड़ाते हैं, दोस्तों से चैट करते नहीं थकते।  कुछ भी पूछो तो गूगल है ना पापा, तपाक से जवाब देते हैं।  पर सवाल यह है कि क्या ये दुनियादारी वाला ज्ञान उनके जीवन को सार्थक, समृद्ध और सुरक्षित बना पाएगा? तो निश्चित ही जवाब ना ही होगा।  जाहिर है कि जो बच्चे हिंदी-अंग्रेजी में अपना नाम न लिख सकें (India education system), वे जीवन में सक्षम कैसे बन सकेंगे? यह हालात सिर्फ भोलू के नहीं, बल्कि उसके जैसे देश के 42 फीसद बच्चों के हैं, जिसका खुलासा वार्षिक शिक्षा स्थिति की ताजा रिपोर्ट में हुआ है। 

रिपोर्ट बताती है कि 28 राज्य यानी लगभग पूरे देश में कक्षा-2 के 25 प्रतिशत बच्चे तो अपनी स्थानीय भाषा में पाठ भी नहीं पढ़ पाते हैं।  यह हालात उस भारत देश के हैं जिसने पूरी दुनिया को ज्ञान की राह दिखाई, जहां प्राचीनकाल से गुरुकुल की समृद्ध परंपरा रही।  जिस देश में तक्षशिला, नालंदा, विक्रमशिला और वल्लभी जैसे समृद्ध विश्वविद्यालय हुए, जिनमें दुनिया भर के बच्चे विश्वविख्यात अध्यापकों से थे।  गुरुकुल परंपरा से लेकर बंगाल, समेत दक्षिण भारत के शिक्षा व्यवस्था की लचर हालत के चलते ही आज बिहार, गुजरात और मध्य प्रदेश ऐसे बड़े राज्य हैं जिनमें 10वीं कक्षा से पहले ही सबसे ज्यादा बच्चे पढ़ाई छोड़ देते है। 

इससे यह भी पता चलता है कि देश में स्कूली शिक्षा व्यवस्था किस हाल में चल रही है, ग्रामीण इलाकों में लड़कियां पढ़ाई सिर्फ इसलिए छोड़ देती हैं क्योंकि स्कूल में शौचालय नहीं होता।  ऐसी स्थिति में देश की समूची शिक्षा व्यवस्था पर सवाल उठता है और उसके संपूर्ण सुधार की दिशा में आमूलचूल परिवर्तन बेहद आवश्यक बनता नजर आता है।  कई शहरों से विरासत में मिली।  जिस देश में 19वीं शताब्दी के

पढ़ने आते वाराणसी नासिक प्रारंभ में प्राचीन गुरुकुलों की परंपरा पर आधारित अनेक नवोदय और केंद्रीय विद्यालय जैसे सैकड़ों स्कूल स्थापित किए गए, ऐसी आदर्श शिक्षा व्यवस्था देने वाले भारत में शिक्षा की यह हालत कई सवाल खड़े करती है।  एक तरफ केंद्र सरकार और राज्य सरकारें स्कूली शिक्षा का दायरा बढ़ाने और जागरूकता पैदा करने के लिए समग्र शिक्षा कार्यक्रम चला रही हैं, एकीकृत स्कूल व्यवस्था की ओर आगे बढ़ रही हैं जिसका मकसद ज्यादा से ज्यादा बच्चों को स्कूली शिक्षा मुहैया करवाना है, वहीं, शिक्षा मंत्रालय के परियोजना मंजूरी बोर्ड की रिपोर्ट बता रही है कि इस अभियान में वैसी कामयाबी मिल नहीं रही, जैसी मिलनी चाहिए, इसकी वजह बच्चों की संख्या के अनुरूप स्कूल और शिक्षक नहीं होना है।  हालांकि शिक्षकों की कमी की स्थिति तब है जबकि बिहार जैसे राज्य दो माह में 2 लाख से ज्यादा शिक्षकों की भर्ती कर रहे हैं।  मध्य प्रदेश में 10 वर्ष से लगातार शिक्षक भर्ती अभियान चल रहा है। 

जाहिर ऐसे में सिर्फ शिक्षकों की कमी ही बच्चों की निरक्षरता का कारण नहीं हो सकती।  तब उन अन्य व्यवस्थाओं पर ध्यान देना जरूरी हो जाता है, जो एक आदर्श शिक्षा प्रणाली के लिए जरूरी होती हैं।  जिनमें देश का शैक्षणिक माहौल, स्कूलों में बुनियादी व्यवस्था, शिक्षकों को गैरशैक्षणिक कार्यों से मुक्ति, आदर्श शिक्षा नीति और शिक्षा के बजट को प्राथमिकता जैसी जरूरतें शामिल हैं।  इन पर जब हम दुनिया के अन्य देशों से तुलना करते हैं तो तमाम विकसित और विकासशील देशों की शिक्षा व्यवस्था भारत से कहीं ज्यादा समृद्ध और विकसित दिखाई देती है।