State leaders should also be capable, why so much dependence on Modi in every election

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देश के विभिन्न राज्यों के बीजेपी नेताओं को अपना अंतर्मन टटोलना होगा कि वे स्वयं इतने सक्षम व सामर्थ्यवान क्यों नहीं बनते कि चुनाव जीत सकें. यदि वे अपना और पार्टी का सशक्त आधार बना लें तो हर चुनाव में प्रधानमंत्री मोदी को राज्यस्तर पर प्रचार के लिए पूरा जोर लगाने की नौबत नहीं आएगी. माना कि बीजेपी के पास मेहनती और प्रतिबद्ध कार्यकर्ता हैं लेकिन कर्नाटक चुनाव के नतीजों से स्पष्ट हो गया कि उनके जनसंपर्क में कसर रह गई. यदि 2018 के बाद से 5 वर्षों तक बजेपी के नेता-कार्यकर्ता जनता-जनार्दन की सही तरीके से सेवा करते, उसका सुख-दुख जानते और कमजोर वर्गों के उत्थान में जुटे रहते तो पार्टी को इतनी कम सीटों पर न सिमटना पड़ता. देखा गया है कि जिन पार्टियों में सत्ता का केंद्रीयकरण हो गया है और राज्य स्तर पर शक्तिशाली नेतृत्व पनपने नहीं दिया गया वहां बुनियाद ढीली होने लगती है. डबल इंजन सरकार का फायदा बताना या धार्मिक मुद्दों में जनता को उलझाना हर समय कामयाब नहीं दिला सकता. जब चुनाव स्थानीय या लोकल मुद्दों पर लड़े जाते हैं तो वहां राष्ट्रीय स्तर के नेताओं का विशेष सरोकार नहीं रह जाता. इसलिए यह सोचना कि पीएम की कई रैलियां करने और लंबा रोड शो निकालने से वोट मिल जाएंगे, निरर्थक साबित होता है. कर्नाटक ही नहीं, किसी भी राज्य में यदि बीजेपी का नेतृत्व चमकविहीन रहेगा तो चुनाव में अनुकूल परिणामों की उम्मीद नहीं की जा सकती. जहां तक उत्तरप्रदेश की बात है, सभी जानते हैं कि वहां अकेले योगी आदित्यनाथ ही काफी हैं. वैसा करिश्मा अन्य राज्यों में भी दिखाना होगा. शिवराजसिंह चौहान या देवेंद्र फडणवीस जैसे प्रभावशाली नेताओं का अपवाद छोड़ दिया जाए तो कितने ही राज्यों में बीजेपी के पास मुख्यमंत्री पद का चेहरा ही नहीं है. पार्टी को चुनाव के लिए मोदी-शाह पर अति निर्भर रहने की बजाय यह देखना चाहिए कि जहां उसकी सत्ता है, वहां भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाए. कर्नाटक में ठेकेदारों के संगठन ने 40 प्रतिशत कमीशन वसूली का आरोप लगाकर बीजेपी सरकार को कठघरे में खड़ा कर दिया था. खुद को दूसरे दलों से जुदा (पार्टी विद डिफरेंस) बतानेवाली बीजेपी का चाल, चेहरा, चरित्र दुरुस्त रहता तो क्या वह चुनाव हारती? पार्टी को उम्मीदवारों के चयन को लेकर भी सतर्क रहना चाहिए. जनता की मांगों पर ध्यान देते हुए उसकी नाराजगी समय पर दूर करनी जरूरी है वरना असंतोष का उबाल रोकना मुश्किल हो जाता है. जो बात येदियुरप्पा में थी वैसी नेतृत्व क्षमता बसवराज बोम्मई प्रदर्शित नहीं कर पाए. जनता और कार्यकर्ता उनसे प्रभावित नहीं हुए. यदि राज्यों में ढीला नेतृत्व रखकर पार्टी चुनाव जीतना चाहती है तो ऐन मौके पर शीर्ष केंद्रीय नेताओं का प्रचार भी उसे डूबने से नहीं बचा पाता. कर्नाटक में 14 मंत्रियों की चुनावी हार ने दिखा दिया कि राज्य में बीजेपी कितने पानी में है. राज्यस्तरीय अकर्मण्य नेताओं को लगता है कि वे कितना ही खेल बिगाड़ें, मोदी आकर उनकी किस्मत संवार देंगे. यह सोच ही गलत है!