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किसानों की बुनियादी समस्याओं को लेकर कोई भी सरकार अभी तक कारगर उपाय नहीं कर पाई है. ऐसी विषम परिस्थितियों में किसानों की आय 2022 तक दोगुनी करने का सब्जबाग दिखाते हुए केंद्र सरकार ने जो 3 कृषि कानून पास किए, उनके लिए किसानों (Farmers Protest)  की राय लेना जरूरी नहीं समझा गया. न तो संसद में बहस कराई गई, न चयन समिति के विचार के लिए इन विधेयकों को भेजा गया. इस सरकार को विपक्ष को विश्वास में लिए बगैर अपनी मर्जी से मनमाने फैसले करने की आदत है. किसानों को नए कानूनों से कैसे खुशहाल किया जा सकेगा, इसकी जबाबदारी लेने की शासन की कोई मंशा नजर नहीं आ रही है. आंदोलनकारी (Kisan Andolan) किसान एमएसपी की कानूनी गारंटी की मांग करते रहे हैं लेकिन यह भी तो सच है कि एमएसपी लागू रहते हुए भी किसानों ने आत्महत्या की.

नए कृषि कानूनों ने किसानों के लिए चिंता पैदा कर दी है कि उन्हें बड़ी कंपनियों या कारपोरेट के रहमोकरम पर छोड़ दिया जाएगा. सरकार लड़ाई को लंबा खींचकर किसानों को बेजार करने पर उतारू है. दूसरी ओर किसान भी पूरी दमदारी के साथ आरपार की लड़ाई के लिए डटे हुए हैं. वैसे पंजाब, हरियाणा जैसे कुछ ही प्रदेशों की आंदोलन में बड़ी हिस्सेदारी रहने से सरकार समझ रही है कि अन्य प्रदेशों के किसान सरकार के कानूनों का समर्थन कर रहे हैं. यह गलतफहमी है. ऐसी त्रासदी में अन्य राज्यों के किसान आंदोलन नहीं कर रहे तो इसका मतलब यह नहीं कि वे सरकार के इन कानूनों व नई नीति से आश्वस्त और संतुष्ट हैं. गरीब किसानों के परिवारों की समस्याएं कम नहीं है.

ऐसे में आंदोलन में कूदना उनके लिए और आत्मघाती हो जाएगा. मध्यप्रदेश और विदर्भ के किसान की खेती पूरी तरह प्रकृति और मौसम के तेवरों पर निर्भर है. उन्हें किसी ठेके से बंधवाना और बड़े संकट में डालना होगा. सामान्य किसान तो पहले ही खाद-बीज व बिजली सप्लाई की समस्या से जूझ रहा है. किसानों को किसी नए नियम-कायदे से बांध देना उसकी आजादी का हनन होगा. मंडी व्यवस्था कायम रखते हुए किसानों को पूर्ववत सहकारी समितियों से खाद-बीज उपलब्ध कराएं जाएं. आपात स्थिति में किसानों को भरपूर सहायता दी जाए. देश के संसाधनों पर पहला हक किसानों व ग्रामीण जनता का है. किसान मजबूत होगा तो देश मजबूत होगा.

– एम पी मिश्रा