हर नेता को कुर्सी की आवश्यकता, बनाना चाहते हैं अपनी सरकार

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पड़ोसी ने कहा, ‘‘निशानेबाज, कहावत है बिल्ली को ख्वाब में भी छीछड़े नजर आते हैं। ऐसे ही नेताओं को हमेशा सत्ता की कुर्सी का सपना दिखाई देता है। वे सोचते हैं कि कैसे न कैसे उनकी सरकार बन जाए।  ऐसे बेमेल गठबंधन बनते हैं जिनके बारे में कहावत है- एक अंधा एक कोढ़ी, राम मिलाई जोड़ी। नेताओं की कुर्सी को लेकर छटपटाहट के बारे में आप क्या कहेंगे?’’

हमने कहा, ‘‘एक जमाना था जब कुर्सियां थी ही नहीं। तब फैसले पंचायतों में हुआ करते थे। दरी की देसी बिछायत पर आराम से पैर फैलाकर बैठे पंच किसी भी व्यक्ति का हुक्का पानी बंद करने का फैसला पहली पेशी में ही कर लिया करते थे। जबसे कुर्सी आई, पेशी बढ़ने लगी। कुर्सी पर बैठा व्यक्ति जानबूझकर फैसला लेने में महीनों विलंब करता है। वह जानता है कि उसका कर्तव्य अपनी और दूसरों की कुर्सी को टिकाए और बचाए रखना है। जब कुर्सी की मर्जी होगी वह खुद ही गोलमोल फैसला कर लेगी। ’’

पड़ोसी ने कहा, ‘‘निशानेबाज कुछ लोग कुर्सियों की परख बड़ी अच्छी तरह करते हैं।  जो नहीं कर पाते, वे किसी कमजोर या लुंजपुंज कुर्सी पर बैठ जाते हैं। ऐसी कुर्सी के 3 पैर हिलते हैं, उसका चौथा मजबूत सा लगनेवाला पाया किसी दूसरी पार्टी का होता है जो ‘बाहरी समर्थन’ कहलाता है।  ऐसी लड़खड़ाती कुर्सियों पर चौधरी चरणसिंह, चंद्रशेखर, देवगौड़ा व गुजराल बैठ चुके हैं।  बाहरी समर्थन हटते ही कुर्सी कबाड़ बन कर रह जाती है। ’’

हमने कहा, ‘‘अफसरों और नेताओं की कुर्सी में अनिवार्य रूप से हत्था होता है। यह हत्था किसी हथियार से कम नहीं होता। बहुत से लोग उनके हत्थे चढ़ जाते हैं। एक कुर्सी पर बैठकर नेता संतुष्ट नहीं होता वह उसमें भी ऊंची कुर्सी पाने की लालसा रखता है।  कितनी ही कुर्सियों में घोटाले का घुन या करप्शन की दीमक लगी रहती है। कुछ नेताओं के पास फोल्डिंग चेयर रहती है। वे चाहे जिस दल की सरकार बने, उसमें अपनी कुर्सी लेकर शामिल हो जाते हैं। बुजुर्ग नेता केंद्र की अनुकंपा से राज्यपाल की कुर्सी पाने का अरमान रखते हैं। ’’