बिहार चुनाव में स्थानीय मुद्दे हावी रहेंगे नीतीश कुमार के नेतृत्व की परीक्षा

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बिहार विधानसभा चुनाव (Bihar elections) के प्रथम चरण के प्रचार के दौरान यह स्पष्ट हो गया कि नौकरी-रोजगार जैसे स्थानीय मुद्दे बड़े पैमाने पर मतदान पर असर डालेंगे. हाल के वर्षों में विधानसभा चुनाव स्थानीय सरकार व नेताओं पर जनमत संग्रह बनकर रह गए हैं. माना जा रहा है कि बिहार के चुनाव का अन्य राज्यों के चुनाव तथा राष्ट्रीय राजनीति पर भी कुछ न कुछ प्रभाव पड़ेगा, खासतौर से राजनीतिक गठबंधन इससे प्रभावित होंगे. कोरोना संकट के बाद से बिहार पहला राज्य है जहां विधानसभा चुनाव हो रहा है. केंद्र द्वारा लॉकडाउन लागू किए जाने के बाद देश के बड़े शहरों से बड़ी तादाद में प्रवासी मजदूर बिहार लौटे. यह भी चुनाव पर असर डालेगा. बिहार के बाद 2021 के शुरुआती 6 महीनों में बंगाल, तमिलनाडु, केरल और असम में विधानसभा चुनाव होंगे. यद्यपि इन सभी राज्यों की राजनीतिक स्थितियां एक दूसरे से अलग हैं, फिर भी बिहार के चुनावी नतीजों का असर इन राज्यों में राजनीतिक पार्टियों की रणनीति और गठबंधन बनाने पर पड़ सकता है. बिहार में सत्तारूढ़ गठबंधन पर दबाव है तथा 3 बड़ी पार्टियां जदयू, बीजेपी और लोजपा की दिशाओं में टकराव है. लोजपा प्रधानमंत्री मोदी के प्रति निष्ठावान बनी हुई है जबकि बीजेपी नीतीश को समर्थन जारी रखे हुए है. चिराग पासवान के रवैये से भ्रम की स्थिति पैदा हुई है. यदि नीतीश कमजोर पड़े तो बीजेपी सरकार बनाने में लोजपा का सहयोग ले सकती है. बीजेपी अपनी जीत के लिए प्रधानमंत्री मोदी (Prime Minister Narendra Modi) पर निर्भर है. लोजपा और शिरोमणि अकाली दल का साथ छूट जाने से केवल जदयू ही एनडीए में बाकी रह गया है. बीजेपी और जदयू के रिश्ते भी बहुत प्रगाढ़ नहीं हैं. 2019 के आम चुनाव में 16 लोकसभा सीटें जीतने के बाद भी जब जदयू को मनचाहे विभाग देने से मना किया गया तो जदयू ने मोदी सरकार में शामिल होने से इनकार कर दिया था.

लोजपा का शातिर रवैया

लोजपा ने नीतीश कुमार के नेतृत्व में चुनाव लड़ने से इनकार करते हुए एनडीए छोड़ दिया लेकिन वह मोदी के नाम पर वोट मांग रही है. इससे गठबंधन में अविश्वास पैदा हुआ है. बीजेपी को चाहिए कि वह जदयू से रिश्ते सुधारे और यह भ्रम दूर करे कि वह अपने गठबंधन सहयोगियों की कोई परवाह नहीं करती. शिवसेना और अकाली दल ने एनडीए से अलग होने के बाद बीजेपी पर ऐसे ही आरोप लगाए थे. यद्यपि बीजेपी ने मुख्यमंत्री पद के लिए नीतीश कुमार के नाम की पुष्टि की है परंतु वह मोदी के नाम पर वोट मांग रही है. बीजेपी का रवैया ऐसा है कि राज्य के चुनाव में भी मोदी के नाम पर ही वोट मिल सकेंगे. इस तरह नीतीश कुमार की उपेक्षा हो रही है. यदि बिहार के चुनाव में एनडीए की जीत होती है तो इसे नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता की जीत माना जाएगा. बीजेपी भी यूपी के समान बिहार में अपना वर्चस्व चाहती है.

बदलाव की उम्मीद नहीं की जा सकती

बिहार में प्रतिस्पर्धात्मक लोककल्याण की वैसी भावना नहीं है जैसी दक्षिण भारत के राज्यों में है. यहां यादव और मुस्लिम वोट राजद के साथ हैं. ऊंची जातियों के लोग बीजेपी का समर्थन कर रहे हैं. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के सामने यादव, मुस्लिम व ऊंची जातियों की चुनौती बनी हुई है. बिहार की जनता को अपने नेताओं से ज्यादा उम्मीदें भी नहीं रहतीं. वहां जाति और समुदाय की भावनाएं काफी प्रबल हैं. ऐसे में बिहार में विकास की राजनीति का मुद्दा काम नहीं करता. इस राज्य में बाढ़, सार्वजनिक स्वास्थ्य और गरीबी की समस्या काफी गहन है. 3.5 लाख अनुबंध शिक्षकों तथा 30 लाख प्रवासी मजदूरों की भी समस्या है. आर्थिक दृष्टि से पिछड़ा वर्ग तथा महादलित या तो खामोश हैं या भ्रमित हैं.

अपनी-अपनी रणनीति

चिराग पासवान ने जदयू के खिलाफ बड़ी तादाद में ऊंची जाति के लोगों को उम्मीदवारी दी है. तेजस्वी यादव राजद के लिए यादवों को एकजुट करने में लगे हैं. उन्होंने सीपीआई (एमएल) की मदद भी ली है लेकिन कन्हैया कुमार को आगे नहीं आने दे रहे हैं. नीतीश कुमार अपने पक्ष में कुर्मी, महादलित व ईबीसी वोट लाने के प्रयास में हैं. उन्हें उम्मीद है कि महिलाओं को 50 फीसदी आरक्षण देने की वजह से उनका भी समर्थन मिल जाएगा. नीतीश ने 2009 में ‘विश्व मोहन ऋषि कमीशन’ की सिफारिशें लागू कर महादलितों को आगे बढ़ाने तथा भूमि सुधार पर बंदोपाध्याय आयोग की सिफारिशें लागू करने का प्रयास किया था. किंतु 2009 के लोकसभा चुनाव के बाद राजद, लोजपा और बीजेपी ने इसे राजनीतिक कदम बताया था. आखिर जदयू को महादलितों व ईबीसी के लिए किए गए प्रावधान शिथिल करने पड़े थे. सवर्णों को खुश करने के लिए भूमि सुधार की सिफारिशें भी रद्द करनी पड़ी थीं.